कैसी है नेपाल के माओवादियों की ज़िंदगी?

पश्चिमी नेपाल के कैलाली ज़िले में हिमालय पर्वत के नीचे और करनाली या घाघरा नदी के किनारे चीसापानी एक रमणीक स्थान है, जहाँ सैकड़ों लोग पिकनिक मनाने आते हैं.

यहाँ से पश्चिम महेंद्रनगर जाने वाले मुख्य राजमार्ग पर कुछ ही दूरी पर माओवादियों की सशस्त्र जनमुक्ति सेना का बड़ा सा साइन बोर्ड लगा है. यह जनमुक्ति सेना की सातवीं डिविज़न की छावनी है.

माओवादियों और नेपाली सेना के बीच लगभग एक दशक के सशस्त्र संघर्ष में क़रीब 16 हज़ार लोग मारे गए और न जाने कितने बेघर और अनाथ हो गए.

वर्ष 2006 में राजनीतिक दलों और माओवादियों के बीच शांति समझौते के बाद नेपाल के विभिन्न अंचलों में इस तरह की सात छावनियां बनाई गई थीं, जहाँ सेना और पुलिस की निगरानी में क़रीब 19 हज़ार माओवादी लड़ाके रहते हैं.

कुछ साल पहले तक ये माओवादी लड़ाके जंगलों में छिपकर रहते थे. आम लोग तो क्या सेना और पुलिस के लोग भी इनके डर से कांपते थे.

विरोध
नेपाल में स्थायी शांति के लिए इन लड़ाकों का पुनर्वास एक बड़ा मुद्दा है. पहले माओवादी इस बात पर अड़े थे कि उन सबको नेपाल की सेना में शामिल किया जाए. लेकिन सेना इसका कड़ा विरोध कर रही थी.

पिछले दिनों सरकार में शामिल चार राजनीतिक दलों के बीच एक समझौता हुआ कि क़रीब एक तिहाई माओवादी लड़ाकों को सेना और सशस्त्र सुरक्षाबलों में शामिल किया जाएगा और बाक़ी को पुनर्वास के लिए आर्थिक सहायता दी जाएगी.

यह जो निर्णय हुआ है वह जनता के पक्ष में है. जन मुक्ति सेना जनता के हित में लड़ते-भिड़ते यहाँ तक आई है. जनता के पक्ष में जो निर्णय हुआ है उसका हम स्वागत करते हैं.
तुला सिंह भुल, कंपनी कमांडर, जनमुक्ति सेना

समझौते में यह भी कहा गया है कि माओवादी सशस्त्र संघर्ष के दौरान ज़ब्त की गई लोगों की ज़मीनें और अन्य संपत्ति वापस करेंगे.

लेकिन प्रधानमंत्री बाबू राम भट्टराई की अगुआई में हुए इस समझौते पर शीर्ष माओवादी नेताओं में सार्वजनिक तौर पर मतभेद उभर आए.

इससे लोगों में आशंका बनी है कि आख़िर जनमुक्ति सेना के जवान किस तरह से समाज की मुख्यधारा में वापस आएँगे. इसलिए सड़क पर आने-जाने वाले लोग इस कैंप की तरफ़ कौतूहल से देखते हैं.

ये लोग आमतौर पर पत्रकारों को अपने कैंप में नही आने देते.

जनमुक्ति सेना शिविर
लेकिन हमने काठमांडू में जनमुक्ति सेना के एक बड़े अधिकारी से शिविर भ्रमण का अनुरोध किया था. इसलिए जनमुक्ति सेना की इस टुकड़ी के कमांडर ब्रिगेडियर प्रचार बहादुर अपने क़रीब 20-25 सैनिकों के साथ कैंप के बाहर ही बने स्वागत स्थल पर हमारा इंतज़ार कर रहे थे.

कुछ देर की अनौपचारिक बातचीत में हमने पाया कि सभी माओवादी लड़ाके राजनीतिक दलों के बीच हुए समझौते को लेकर काफ़ी उत्साहित हैं.

फ़िर औपचारिक बातचीत के लिए ब्रिगेडियर प्रचार बहादुर हमें गेट के अंदर ले गए.

नेपाल में माओवादियों का पुनर्वास एक बड़ा मुद्दा है. सैनिकों का कहना है कि वे सुबह की परेड से लेकर शाम को खेलकूद तक नियमित सेना की तरह रहते हैं. दिन में कई लोग कंप्यूटर ट्रेनिंग लेते हैं और कई अन्य अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी कर डिग्री लेने की कोशिश कर रहे हैं.

माओवादी शीर्ष नेताओं के बीच मतभेद के सवाल पर कमांडर प्रचार बहादुर कहते हैं कि इससे कोई फ़र्क नही पड़ता क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टी के संविधान के मुताबिक़ बहुमत का निर्णय सबको मानना पड़ता है.

संभवतः कमांडर प्रचार बहादुर और उनके साथियों को पिछले पांच सालों में इस बात का अहसास हो गया है कि सभी लड़ाकों को नेपाली सेना में शामिल कराना नामुमकिन है और वापस बंदूक उठाना भी उतना ही नामुमकिन है. इसलिए राजनीतिक दलों के समझौते को मान लेना ही अधिक व्यावहारिक है.

संतुष्ट
बातचीत को आगे बढाते हुए कंपनी कमांडर तुला सिंह भुल कहते है कि निजी तौर पर उनके सभी साथी नेपाली सेना और सशस्त्र सुरक्षा बलों में ही जाना अच्छा मानते हैं. फिर भी वे सरकार और राजनीतिक दलों के निर्णय से संतुष्ट हैं.

अपनी सहमति जताते हुए तुला सिंह कहते हैं, “यह जो निर्णय हुआ है वह जनता के पक्ष में है. जन मुक्ति सेना जनता के हित में लड़ते-भिड़ते यहाँ तक आई है. जनता के पक्ष में जो निर्णय हुआ है, उसका हम स्वागत करते हैं.”

31-वर्षीय तुला सिंह 2003 में जनमुक्ति सेना मे शामिल हुए थे. उनके परिवार में पत्नी और दो बच्चों समेत 17 लोग हैं. तुला सिंह ने कैंप में रहते हुए इंटर पास कर लिया है और उनका आगे और पढ़ने का इरादा है.

लेकिन बहुत पूछने पर भी तुला सिंह यह नहीं बताते कि वह सेना में जाना चाहते हैं या आर्थिक सहायता लेकर अपने परिवार के साथ रहना चाहते हैं.

अब देश में ऐसा संविधान होना चाहिए जिससे नेपाल में अमन चैन और शांति हो, जो ग़रीब दुखी हैं उनको न्याय मिले और राज्य उन्नति की तरफ बढे.
राम बहादुर देवधर,

उनका कहना है कि सरकार की एक टीम कैंप में आने वाली है. सभी सैनिक अपनी पसंद इसी टीम को बताएंगे.

इन सैनिकों में से कई लड़ाई के दौरान शारीरिक रूप से विकलांग हो गए थे, या फिर ज़्यादा पढ़े लिखे नहीं हैं. ऐसे लोगों को सेना में खपाना संभव नहीं लगता.

कई सैनिक उम्र ज़्यादा हो जाने के कारण स्वयं भी सेना में नही जाना चाहते. इन्ही में से एक है 38-वर्षीय राम बहादुर देवधर.

सैनिक राम बहादुर देवधर ने साफ़ कहा कि वह समाज सेवा में जाना चाहते हैं. देवधर इस बात से संतुष्ट हैं कि राजा का निरंकुश शासन समाप्त होकर नेपाल में बहुदलीय लोकतंत्र स्थापित हो गया है.

देवधर अब देश में ऐसा संविधान चाहते हैं जिससे ‘नेपाल में अमन चैन और शांति हो, जो ग़रीब दुखी हैं उनको न्याय मिले और राज्य उन्नति की तरफ बढे.’

मुद्दा
उम्र ज़्यादा होने के कारण राम बहादुर देवधर सेना में जाने की जगह समाज सेवा करना चाहते हैं.
जहाँ एक ओर ये माओवादी लड़ाके अपने पुनर्वास का इंतज़ार कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर जिनकी ज़मीने छिन गई थीं, वे भी अपनी ज़मीन और अन्य संपत्ति वापस चाहते हैं.

नेपाली कांग्रेस और अन्य दलों के लिए यह एक मुख्य मुद्दा है.

मगर तुला सिंह ज़मीन छीनने को जायज़ ठहराते हैं. वह कहते हैं, “जिसकी ज़मीन पर कब्ज़ा किया था, वह ग़रीब का नहीं था. जिसने ग़रीब को धोखा दिया, जिसने ग़रीब को मारा, जिसने ग़रीब के साथ लूटपाट की, उसकी ज़मीन पर कब्ज़ा करके ग़रीबों में वितरण किया था. इसका कोई अफ़सोस नही है. जो किया था, ठीक किया था.”

कमांडर प्रचार बहादुर के अनुसार उनके इस कैंप में कुल 761 लोग हैं. इनमे करीब 200 महिलाएँ हैं, हालांकि हमें एक भी महिला सैनिक दिखाई नही दी. पुरुषों की तादाद भी उतनी नहीं दिख रही थी.

थोड़ा और जानने-समझने के लिए हमने कैंप के अंदर घूमने की अनुमति चाही, मगर ब्रिगेडियर प्रचार बहादुर इसके लिए तैयार नहीं हुए.

 

Published here- https://www.bbc.com/hindi/southasia/2011/11/111116_nepal_maoist_camp_ar