गांधी जी संघर्ष में कभी हताश नहीं हुए

महात्मा गांधी ने जीवन भर संघर्ष किया, जवान से बुढ़ापे तक और कभी निराश नहीं हुए. उनका जीवन दर्शन- सत्य और अहिंसा की सामाजिक जीवन में प्रतिष्ठा , सब धर्मों को बराबर का दर्जा देने, मानव और प्रकृति दोनों में सामंजस्य और न्याय आधारित था. उन्होंने भगवान राम के जीवन चरित से भी बहुत प्रेरणा ली. 30 जनवरी को महात्मा गांधी की शहादत के अवसर पर : पेश है राम दत्त त्रिपाठी के एक भाषण का सार संक्षेप.

आज की दुनिया में शांतिपूर्ण सह अस्तित्व एक बड़ी चुनौती है। ऐसा नहीं है कि केवल अलग-अलग धर्मों के लोग लड़ रहे हैं। अपितु एक ही धर्म के अंदर भी कई युद्ध हो चुके हैं और आज भी हो रहे हैं। चाहे यूरोप में ईसाई आपस में लड़े हों, पश्चिम एशिया में इस्लामी दुनिया में लोग लड़ रहे हैं। हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान में लड़ रहे हैं। हिंदुस्तान में भी केवल हिंदू – मुसलमान में झगड़ा नहीं है। अतीत में शैव और वैष्णव आपस में कम नहीं लड़े हैं | मुझे लगता है कि बौद्धों के मठों को बाहर के लोगों ने नहीं तोड़ा होगा, सारनाथ और अन्य जगह|

लेकिन बाद में धीरे-धीरे दुनिया भर में लोगों को यह एहसास हुआ हमारा कि  हित एक साथ मिलकर रहने में ही है | गांधी जी ने  ‘हिंद स्वराज’ में हिंदू मुस्लिम एकता पर मिल-जुलकर रहने पर बहुत ज़ोर दिया था। 

गांधी जब लंदन से अफ़्रीका वापस आ रहे थे जहाज में , उनके विचार अंदर से उबल रहे थे। उन्हें अंदर से प्रेरणा हुई कि मुझे लिखना है | इसके पीछे यह कारण था कि वह लंदन में वी डी सावरकर और श्यामजी कृष्ण वर्मा जैसे लोगों से मिले थे, जो हिंदुत्व का झंडा उठाए थे और हिंसा में भी विश्वास करते थे।गांधी को यह खतरा लगा था कि ये लोग हिंदुस्तान में क्या गड़बड़ कर सकते हैं |

लंदन में वे जो सावरकर और उनकी टीम के लोग थे, या जो सशस्त्र संघर्ष को मांने वाले मार्क्सवादी लोग या जो मुस्लिम राष्ट्र की बात कर रहे थे उन सबका जवाब देने के लिए उन्होंने ‘हिंन्द स्वराज’ लिखा था। उसमें बहुत सारी बातें थी| ‘हिंद स्वराज’ गांधी जी ने 41 वर्ष की आयु में लिखी थी और गांधी जी उन विचारों पर अंत तक टिके रहे| गांधी जी जब राजकोट में स्कूल में पढ़ते थे, तभी से उनकी मुस्लिम युवकों से मित्रता थी। दक्षिण अफ़्रीका में हिंदू – मुस्लिम -ईसाई गुजराती तमिल सबके साथ मिलकर उन्होंने काम किया।इसलिए उनका सोच सबको साथ लेकर चलने का था।

‘हिंदू और मुसलमान

‘हिंद स्वराज’ में एक अध्याय है ‘हिंदू और मुसलमान|’ जिसमें उन्होंने लिखा है कि, “एक राष्ट्र होकर रहने वाले लोग एक दूसरे के धर्म में दखल नहीं देते हैं , अगर देते हैं तो समझना चाहिए कि वह एक राष्ट्र होने लायक नहीं हैं। अगर हिंदू मानें कि सारा हिंदुस्तान, सिर्फ़ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक नीरा सपना है।मुसलमान अगर ऐसा मानें की उसमें सिर्फ़ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए।फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक मुल्की हैं, वे देशी भाई हैं ; और उन्हें एक दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।

Picture of Mahatma Gandhi
महात्मा गांधी

भारत राष्ट्र के बारे में गांधी जी का यह सोच था। मतलब ऐसा नहीं है कि एक राष्ट्र सिर्फ एक धर्म के लोगों का होगा, वरन एक राष्ट्र में तो बहुत से धर्मों के लोग रह सकते हैं | यह बात गांधी जी ने 1909 में कही थी |

हिंद स्वराज में उन्होंने यह भी कहा कि हिंदुस्तान में मुस्लिम बादशाह रहे, उनके शासन के अंदर हिंदू रहे | उसी प्रकार हिंदू बादशाह के अंदर मुस्लिम रहे और फले-फूले | दोनों को बाद में समझ आ गया कि झगड़ने से कोई फ़ायदा नहीं, हमने एक साथ रहना सीख लिया था |

हिंदू और मुसलमान दोनों को समझाते हुए गांधी जी ने हिंद स्वराज में लिखा, “बहुतेरे हिंदुओं और मुसलमानों के बाप दादे एक थे, हमारे अंदर एक ही ख़ून है।क्या धर्म बदला इसलिए आपस में हम दुश्मन हो गए? धर्म तो एक ही जगह पहुँचने के अलग – अलग रास्ते हैं।हम दोनों अलग – अलग रास्ते लें, इसमें क्या हो गया।उसमें लड़ाई काहे की?”

गांधी जी रामराज की बात करते थे। तुलसीदास ने भी राम राज की अपनी कल्पना में लिखा है :

“सब नर करहिं परस्पर प्रीति। चलहिं स्व धर्म निरत श्रुति नीति।।

गांधी जी ने एक जगह इस सूत्र का उल्लेख किया है , “अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम ।।”

यानि अपना पराया तो छोटी बुद्धि वाले कहते हैं। उदार मन वाले लोगों के लिए तो पूरी वसुधा ही कुटुंब यानि परिवार है।

गांधी जी ने कहा, “ झगड़े तो फिर से अंग्रेज़ों ने शुरू कराए।” हमारे मध्य यह भेदभाव और धर्म की लड़ाई अंग्रेजों ने लगाई है | आज के समय में अंग्रेज का मतलब है सत्ता, जिस प्रकार के लोग आज  दिल्ली में  बैठे हुए हैं । यू.पी. के चुनाव में प्रधानमंत्री के स्तर से कब्रिस्तान और श्मसान की बातें हुई ,  यह बातें कही गयीं यह जो सत्ता है  उसके लिए। 

राजनीति और सत्ता जन सेवा का माध्यम है। लेकिन आज सत्ता हासिल करना ही लक्ष्य हो गया है, जिसके लिए सिद्धांतों की बलि देकर तरह – तरह के समझौते करते हैं। आज चुनावी राजनीति बहुमत हासिल करने के लिए अलगाव और विभेद पैदा कर रही है। कुछ दल मुस्लिम धार्मिक नेताओं का सहारा ले रहे हैं, तो कुछ हिंदू धार्मिक साधू संतों का।

मानव जाति के मध्य जो झगड़े होते हैं| , वह भय, असुरक्षा और लालच के कारण होते हैं | पहले तो अल्पसंख्यकों को ही असुरक्षा का खतरा होता था किन्तु आज तो बहुसंख्यक को भी खतरा लग रहा है | आज सुनियोजित तरीके से बहुसंख्यक लोगों के मध्य असुरक्षा और हीन भावना पैदा की जा रही है | उनको कहा जा रहा है कि तुम्हारे मंदिर नष्ट हो जायेंगे, तुम्हारी पूजा कम हो जाऐगी, तुम्हारी आबादी कम हो जएगी | वे कहते हैं कि साहब हिंदुस्तान में तो हिन्दू होना गुनाह है। इस तरह भड़काते हैं लोगों को।

नेहरू महात्मा गांधी और मौलाना आज़ाद के साथ

आज गोरक्षा का एक बहुत बड़ा सवाल है उठ गया है । आर एस एस के प्रमुख मोहन भागवत जी ने कहा है कि गोरक्षा पर देश भर में कानून होना चाहिए | गांधी जी के ‘हिंद स्वराज’ में भी गौ रक्षा पर भी टिप्पणी है | कितनी दूर दृष्टि थी |

गांधीजी का जो रचनात्मक कार्यक्रम था उसमें गौ सेवा एक बड़ा कार्यक्रम था | गांधी जी मानते थे कि हिंदुस्तान खेती प्रधान देश है, इसलिए गाय कई तरह से उपयोगी जानवर है। और पूज्य है।

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हिंद स्वराज में उन्होंने कहा, “जैसे मैं गाय को पूजता हूँ ; वैसे ही मैं मनुष्य को पूजता हूँ , जैसे गाय उपयोगी है, वैसे ही मनुष्य भी – फिर चाहे वह मुसलमान हो या हिंदू | तब क्या गाय को बचाने के लिए मैं मुसलमान से लडूंगा? क्या मैं उसे मारूंगा? ऐसा करने से मैं मुसलमान का और गाय का भी दुश्मन बनूंगा | इसलिए मैं कहूंगा कि गाय की रक्षा करने का एक ही उपाय है कि हमें अपने मुसलमान भाई के सामने हाथ जोड़ना चाहिए और उसे देश की ख़ातिर गाय को बचाने के लिए समझाना चाहिए | और अगर वह न समझे तो मुझे गाय को मरने देना चाहिए, क्योंकि वह मेरे वश की बात नहीं है | अगर मुझे गाय पर अत्यंत दया आती हो तो अपनी जान दे देनी चाहिए लेकिन मुसलमान की जान नहीं लेनी चाहिए| यही धार्मिक कानून है ऐसा मैं मानता हूँ |”

यह विचार था गांधी जी का कि गाय पूजनीय होते भी, उसकी रक्षा के लिए किसी इंसान की जान लेने का हक़ हमें नही है। समझाने के लिहाज़ से उन्होंने आगे फिर लिखा हिंद स्वराज में, “मेरा भाई गाय को मारने दौड़े तो मैं उसके साथ कैसा बर्ताव करूँगा? उसे मारूँगा या उसके पैरों में पड़ूँगा? अगर आप कहेंगे कि मुझे उसके पाँव पड़ना चाहिए, तो मुझे मुसलमान भाई के भी पाँव पड़ना चाहिए।”

गांधी का नज़रिया बहुत साफ़ था. किंतु आज क्या हो रहा है अलवर और दादरी में जो हुआ क्या वह सही हुआ ? केवल गांधी विचार का गुणगान करने से काम नहीं बनेगा, गांधी तो कर्म था | जो किया उन्होंने कर्म से किया है .गांधी चाहते तो चंपारण पर शोध करके पीएचडी की उपाधि पा सकते थे; डी.लिट. पा जाते किंतु उससे क्या होता? उससे तो देश नहीं आजाद होता और न ही उससे समस्या हल होती| तो गांधी इसलिए गाँधी हैं कि अपनी जवानी से लेकर, 24 वर्ष के थे जब अफ्रीका में संघर्ष शुरू किया और बुढ़ापे तक अपने उद्देश्य के लिए संघर्ष किया।लगभग 80 वर्ष का वह एक बूढा आदमी, जो आजादी के नायक होकर भी जश्न के लिए दिल्ली में न रहकर वह हिंदू मुस्लिम सामंजस्य के लिए बिहार, कलकत्ता और नोआखाली जाता है। गांव-गांव जाता है | पैदल चलता है, चप्पल उतारकर और कहता है कि मैं जिन लोगों के यहाँ जा रहा हूँ; वह मंदिर हैं,। चप्पल भी उतार देता है, बावजूद इसके कि रास्ते में कंकड़ हैं, काँटे हैं और कुछ लोगों ने जानबूझकर काँच के टुकड़े भी बिछाए हैं। हिंदू और मुस्लिम दोनों से कितना विरोध झेल रहे थे। मगर कर्तव्य पथ से पीछे नहीं हटे।उनकी जान को भी ख़तरा था।त्याग और संघर्ष का चरम है यह ।

गांधीजी की एक बात है उनके अपने बारे में उन्होंने कहा था , “I have been a rebel and a fighter all my life. And I have found great happiness there in. But I have never been defeated in the spirit. I cannot weep nor can I make others do so. I had gone to NoaKhali to wipe their tears and tell them not to mourn over the loss of life and property. A satyagrahi knows no defeat.”

तो गांधी जी संघर्ष में कभी हताश नहीं हुए। आख़िरी दम तक हार नहीं मानी। दिल्ली में उपवास के बाद पाकिस्तान जाने की भी तैयारी कर रहे थे। वहाँ के लोगों को समझने के लिए जाना चाहते थे की अल्पसंख्यकों के साथ मिल-जुलकर रहें। भाई  - भाई की तरह। मगर दोनों तरफ़ कुछ लोग थे जो ऐसा नहीं चाहते थे। 

गांधी जी का जो रास्ता है, वह कर्म योग का रास्ता है, परिस्थिति से जूझने का रास्ता है। आज की समस्याओं से निपटने के लिए भी वही रास्ता है।

आज भी वही समस्या है धार्मिक -साम्प्रदायिक संघर्ष की, विद्वेष की।गांधी ने विभिन्न धर्मों के बीच एक समान तत्व निकाला कि ईश्वर एक है , बीच का मार्ग कि सब धर्मों बराबर सम्मान दो। मध्यम मार्ग। उसके बजाए आज कई जगह लोग अतिवादी या चरमपंथ के रास्ते पर हैं| यह अतिवाद और चरमपंथ पूरी दुनिया के लिए एक बड़ा खतरा है| इससे सामाजिक शांति और स्थिरता भंग हो जाती है। जहाँ शांति और सामाजिक सद्भाव भंग होता है, वहाँ देश भी अस्थिर हो जाता है|

भारत में कुछ लोग हिंदू राष्ट्र की बात करते हैं। मैंने नेपाल में देखा, वह तो हिन्दू राष्ट्र था। नेपाल में बहुत गरीब लोग हैं । यू. पी. और बिहार से मिला जुला इलाका है। माओवादी और और सेना के बीच सशस्त्र संघर्ष था।समाचार संकलन के लिए मैं उनके बीच में घूमता था। मैं यही सोचता था कि गरीबी उनके यहाँ भी और हमारे यहाँ भी है | तो ये लोग क्यों इतनी बड़ी तादाद में बंदूक उठाए हुए हैं , क्योंकि उनको भरोसा नहीं था वहां पर स्टेट पर, राजा पर | सामंती फ्यूडल सिस्टम था |

चूंकि यू. पी और बिहार में लोगों को अभी भरोसा है कि हमारे बीच के लोग चुनकर लोग जा रहे शासन चलाने के लिए , डेमोक्रेसी है और इसी से उनके जीवन में बदलाव आएगा | शोषण और ग़ैर-बराबरी ख़त्म होगी।

लेकिन जब भरोसा टूटता है तो क्या होता है, नेपाल में हिन्दू राष्ट्र दो मिनट में ख़त्म हो गया | वह राजा जिसको विष्णु का अवतार कहते थे, दो मिनट में उसको उतारकर फेंक दिया ।

हिन्दू राष्ट्र कहने से भारत राष्ट्र का निर्माण नहीं होगा।हमें सामाजिक शांति लानी पड़ेगी| लोगों का जीवन ख़ुशहाल बना होगा।ग़ैर-बराबरी ख़त्म या कम करनी होगी।यही बात मुस्लिम उग्रवादियों पर भी लागू होती है।

आज योग की बात बहुत होती है, लेकिन योग में विभेद की गुंजाइश कहाँ है? समत्वम योग उच्यते, ऐसा कहा है गीता में । योगी में किसी के प्रति वैर भाव नहीं होता। गाँधी सबसे बड़े योगी थे, महायोगी |

जैसे तुलसीदास ने नाना पुराण, निगमागम , वेद, उपनिषद , वाल्मीकि रामायण आदि सब कुछ पढ़कर ‘रामचरित मानस’ लिखा था | उसी प्रकार गांधी ने ‘हिंद स्वराज’ लिखने से पहले सब कुछ पढ़ा था| वेद, पुराण, गीता, रामायण, बाइबल, कुरान सब कुछ पढ़ा था और पतंजलि योग दर्शन भी पढ़ा था|

आज जो पेट हिलाकर योग सिखाते हैं तो केवल पेट हिलाने से कोई योगी नहीं होता, न हाथ- पैर हिलाने से होता है| योग में आसन और प्राणायाम से पहले यम- नियम हैं। जीवन के कुछ सार्वभौम मूलभूत सिद्धांत हैं, जिनका पालन करना होता है।

पतंजलि योग दर्शन में योग का उद्देश्य चित्त की वृत्तियों का निरोध है, यानि इंद्रियों को वश में कर चेतन आत्मा से जुड़ने का ज्ञान। यह मनुष्य के शरीर, इंद्रियों और मन को अनुशासित करने की साधना है। सम दर्शी होने की साधना है। निर्वैर होने की साधना है।

योग के जो आठ अंग बताए हैं, उनमें यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि है। इसमें आसान और प्राणायाम से पहले यम और नियम पर ज़ोर है।

यम क्या हैं? तो पतंजलि योग दर्शन में बताया पाँच यम बताया है अहिंसा, सत्य, अस्तेय ( चोरी का अभाव ) , ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। नियम भी पाँच हैं।शौच ( पवित्रता ) संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर शरणागति।

Mahatma Gandhi going with a group of people
महात्मा गांधी के साथ

आप देखेंगे कि गांधी जी ने सत्य और अहिंसा का जो आग्रह रखा, उसका ज़िक्र योग दर्शन में भी है । यह योग का एक अनिवार्य तत्व है। उसमें कहा गया है जो अहिंसा की सिद्धि कर लेता है उस योगी में किसी के प्रति बैर भाव नहीं होता है। वैर, ईर्ष्या, द्वेष आदि की भावना ही समाप्त हो जाती है। उसके मन में किसी के प्रति भेदभाव नहीं होता है|

और जब योगी में सत्य की प्रतिष्ठा हो जाती है, यानी वह जीवन में सत्य का पालन करता है तो उसके मुंह से निकले वचन कभी निष्फल नहीं होते, वह जो कहता है हो जाता है। | इसलिए गांधी विचार के मूल में सत्य और अहिंसा, यह पतंजलि योग दर्शन में भी है |

यह बात नहीं है कि इन गुणों को उन्होंने केवल अपने निजी जीवन में लिया। गांधी जी ने उसको सामाजिक सद्गुण में परिवर्तित किया| वह केवल अंग्रेज़ों को नहीं हटाना चाहते थे, लगे हाथ साथ – साथ भारत में नया समाज बनाना चाहते थे सद्गुणों की प्रधानता वाला।

1937 में हुगली में गौ सेवा संघ के सम्मेलन में गाँधी जी ने अपने भाषण में कहा कि, “अहिंसा अगर संगठित नहीं हो सकती तो वह धर्म नहीं है | यदि मुझमें कोई विशेषता है तो वह यह है कि मैं सत्य और अहिंसा को संगठित कर रहा हूं|”

गांधी जी कहते थे कि, “अहिंसा व्यक्तिगत गुण है तो यह मेरे लिए त्याज्य वस्तु है| मेरे लिए अहिंसा की कल्पना व्यापक है|”

16 मार्च 1940 हरिजन सेवक में उन्होंने लिखा, “हमें सत्य और अहिंसा को केवल व्यक्तियों की चीज नहीं बनाना है| हमें ऐसी चीज बनाना है जिस पर समूह, जातियां और राष्ट्र अमल कर सकें| मैं इसी को सच्चा करने के लिए जीता हूं| और इसी की कोशिश करते हुए मरूंगा।” यह गाँधी का कथन है |

उन्होंने अहिंसा और सत्य के गुणों को नागरिक समाज में प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया|

उन्होंने कहा कि, “ आचार के बिना कोर बौद्धिक  का ज्ञान उस निर्जीव शरीर की तरह है जिसे मसाला भरकर सुरक्षित रखा जाता है| वह शायद देखने में अच्छा लगे, किंतु उसमें प्रेरणा देने की शक्ति नहीं होती| मेरा धर्म मुझे आदेश देता है कि मैं अपनी संस्कृति सीखूं, ग्रहण करूं और उसके अनुरूप चलूं, अन्यथा अपनी संस्कृति से विच्छिन्न होकर हम एक समाज के रूप में  मानो आत्महत्या कर लेंगे| किंतु साथ ही वह मुझे दूसरों  की  संस्कृतियों का अनादर करने या उन्हें  तुच्छ समझने से भी रोकता है|’

समझने की बात है कि जो अपनी संस्कृति और धर्म के साथ -साथ दूसरे की संस्कृति और धर्म को भी आदर देना है। ये जो श्रेष्ठता का भाव है कि मेरा धर्म श्रेष्ठ है, यहीं से तो कनफ्लिक्ट या संघर्ष पैदा होता है| लोकतंत्र और हिंसा का मेल नहीं बैठता।

गांधी जी भारत में ऐसा नागरिक समाज बनाना चाहते थे, जो अपनी पुरानी धार्मिक साम्प्रदायिक चेतना से ऊपर उठकर सामंजस्य से रहना सीखें।पुराने सोच को बदले बिना ये झगड़े समाप्त नही हो सकते।

काफ़ी दिनों तक दुनिया सही दिशा में जा रही थी।लोग एक दूसरे के साथ रहना और दूसरी संस्कृतियों का आदर करना सीख रहे थे, पर कुछ दिनों से अचानक फिर उलटी गंगा बह रही है। अमेरिका और इंग्लैंड आदि में आज क्या हो रहा है?

आज समूची दुनिया के लिए यह एक बड़ी चुनौती है की कैसे अलग – अलग रंग, रूप, भाषा, बोली और संस्कृतियों के लोग आपस में सद्भावना के साथ मिल-जुलकर रहें।

गांधी विचार इसके लिए एक रास्ता दिखाता है।मगर इस विचार को संग्रहालयों और पुस्तकालयों से निकालकर समाज में ले जाने की ज़रूरत है। क्या गांधीवादी लोग अपने- अपने सीमित दायरों से बाहर आकर यह दायित्व उठाएँगे, आज यह बड़ा प्रश्न है। गड़बड़ करने वाले तो बहुत सक्रिय और संगठित हैं। पर गांधीवादी संख्या और संगठन की दृष्टि से दिनो-दिन कमज़ोर हो रहे हैं।

अंत में दो और सवाल उठाना चाहता हूँ कि क्या अगर किसी समाज में हिंसा, झूठ, शोषण और गैर -बराबरी है तो क्या वहाँ सह-अस्तित्व संभव है?

गाँव में हम जाते हैं तो पाते हैं कि विभिन्न जातियों का यह टोला अलग है, वह टोला अलग है। जहाँ ऊँच -नीच का भाव है, क्या वहाँ सह-अस्तित्व संभव है ? सह अस्तित्व के लिए कहीं न कहीं शोषण, हिंसा और गैर बराबरी को ख़त्म करना होगा|

मेरा कहना है कि जब न्याय संगत विकास होगा, समाज में न्याय होगा तभी सह-अस्तित्व संभव होगा| उसके बिना संभव नहीं है|

सह अस्तित्व केवल मानव-मानव के बीच नहीं, चाहिए। आज कितना बड़ा पर्यावरण का संकट है। मुनाफ़े के लिए उद्योग वाले शासन से मिलकर प्रकृति को नष्ट कर रहे हैं। तमाम जंगल नष्ट हो रहे हैं, पहाड़ और नदियाँ नष्ट हो रही हैं।वायु और आकाश के साथ- साथ प्रदूषण से समुद्र पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। जंगली जीव मानव आबादी की तरफ़ भाग रहे हैं और आपस में संघर्ष हो रहा है। इसलिए प्रकृति और अन्य जीवों के साथ भी सह-अस्तित्व पर हमें सोचना होगा और उसके अनुसार करना होगा | नीतियाँ बनानी होंगी।

कृपया इसे भी देखें https://mediaswaraj.com/who-is-mahatma-gandhi-of-the-peasant-movement-shravan-garg/

रामदत्त त्रिपाठी

picture of Ram Dutt Tripathi
राम दत्त त्रिपाठी , पूर्व संवाददाता , बीबीसी

@Ramdutttripathi

Email : ramdutt.tripathi@gmail.com

(नोट : चम्पारण सत्याग्रह के उपलक्ष्य में पटना में 10 – 11 अप्रैल 2017 को गॉंधीवादियों के राष्ट्रीय समागम में राम दत्त त्रिपाठी के भाषण के मुख्य अंश . राम दत्त त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार हैं और जे पी आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्ता के नाते इमर्जेंसी में जेल में बद थे .

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