शायद आप बांके के बारे में नहीं जानते हों. बांके एक गैंडा है जो असम के जंगल से यहाँ लाया गया है.
उत्तर प्रदेश के नज़दीक़ नेपाल से लगे तराई के जंगलों मे उन्नीसवीं सदी तक बड़ी तादाद मे गैंडे थे लेकिन जंगलों की कटाई और शिकार के कारण गैंडे लुप्त हो गए. जानकारों के अनुसार आख़िरी गैंडा 1878 में मारा गया था.
सौ साल बाद 1978 मे दुधवा मे फिर से गैंडों को बसाने का निर्णय हुआ. 1984 मे असम के जंगलों से पाँच जंगली गैंडे पकड़ कर दुधवा के जंगल मे लाए गए.
इनमें दो नर बांके और राजू के अलावा तीन मादाएं सहेली, आशा और पृथ्वी थी.
यह परियोजना इतनी सफल रही कि अब दुधवा जंगल मे इनकी संख्या बढ़कर 28 हो गई है.
ईष्यालु गैंडे
शुरुआत में काफ़ी मुश्किलें आईं. सबसे बड़ी मुश्किल यह कि एक नर गैंडे को दूसरा कोई नर गैंडा बिल्कुल बर्दाश्त नही था.
बांके, उसकी सहेलियों और बाल बच्चों की तलाश मे हम घने जंगलों को पार कर ककरहा घास के मैदान पहुंचे. करीब 27 वर्ग किलोमीटर इलाक़े को बिजली के तारों से घेर कर विशेष गैंडा क्षेत्र बनाया गया है , जिससे ये गैंडे बाहर किसानों के गन्ने के खेतों मे न जाएं.
दुधवा में इस समय 28 गैंडे हैं |
गैंडों को गन्ना बहुत पसंद है लेकिन यहाँ के घास मैदान मे नर्कुल घास इतनी पर्याप्त है कि गैंडों को भरपेट भोजन मिल सके. नर्कुल के अलावा करीब एक दर्जन किस्म की घासें यहाँ हैं जो हिरणों को प्रिय है.
दुधवा भारत का अकेला जंगल है जहाँ हिरणों की पाँच प्रजातियाँ पाई जाती हैं. जंगली सूअर, भालू और अन्य जानवरों के अलावा साँप-बिच्छू और चार सौ से ज़्यादा क़िस्म के पक्षी दुधवा मे हैं.
हालांकि देश मे बाघों की आबादी घटी है लेकिन दुधवा मे बढ़ी है.
हम एक बड़ी कार पर कच्ची सड़क पर खामोशी से चलते हुए हिरणों के झुंड देख रहे थे. लेकिन हमारीं आँखे बाघ और गैंडा तलाश रही थीं.
तभी हमारे गाइड नसीम अहमद ने बाई तरफ़ इशारा किया. दूरबीन से देखा तो पता चला वह गैंडा है. हमने जल्दी से एक हाथी का इंतजाम किया और पहुँच गए ऊंची ऊंची घास के उस घने जंगल मे.
वहाँ एक मादा गैंडा मिली, हमारा हाथी आता देख गैंडे का एक बच्चा घास के बीच से भाग कर अपनी माँ के पास दुबक गया.
कुछ और आगे बढ़े तो एक और मादा गैंडा अपने बच्चे के साथ घास चरती मिली. हाथी देख उसका बच्चा भी दुबक गया.
चार गैंडे देखने की खुशी तो थी मगर बांके से मुलाक़ात नहीं हुई इसलिए हम दूसरे दिन फिर जल्दी हाथी लेकर निकले.
शाल के घने जंगलों से हमारा हाथी जिस सड़क से गुजर रहा था वहाँ दीमकों के प्राकृतिक वातानुकूलित घर मिले.
प्राकृतिक वातावरण
दुधवा में हिरणों क पाँच प्रजाति है |
दुधवा जंगल की एक ख़ास बात यह है कि इसे बिल्कुल प्राकृतिक रखा जा रहा हैं. यानी अगर कोई पेड़ गिर गया है तो वह भी नहीं हटाया जाता. इससे हर किसी जीव जंतु को प्राकृतिक भोजन और आवास मिल जाता है.
थोडा आगे बढ़े तो साइकिलों पर आते मज़दूरों के झुंड मिले वे कच्ची सड़कें बनाने का काम करने आ रहे थे.
आगे पेडों के बीच ऊंची ऊंची घास के बीच एक सींग वाला एक बड़ा गैंडा दिखा. हमारा अंदाज़ सही निकला. यह बांके ही था. हाथी पर सवार होकर हमारा उसके पास जाना पसंद नहीं आया.
वह बड़ी देर तक हमे घूरता रहा और उसके फोटो उतारते हुए उसके बारे मे बातें करते रहे.
हमारे महावत इरशाद को अब भी वह वाकया याद है, जब बांके ने लोहित नाम के एक गैंडे को मार मार कर अधमरा कर दिया था. इरशाद हाथी लेकर आए थे लोहित को बचाने.
जंगल विभाग के अफ़सर लोहित को कानपुर चिड़ियाघर से लाए थे ताकि यहाँ मादाओं को एक ही नस्ल के नर गैंडा के बजाय प्रजनन के लिए एक और गैंडा उपलब्ध रहे.
कुछ दिन अलग सुरक्षित घेरे मे रखने के बाद लोहित को खुला छोडा गया. लोहित जैसे ही एक मादा गैंडे की तरफ़ गया, बांके ने उस पर हमला कर दिया. लोहित गंभीर रूप से घायल हुआ पर डाक्टरों ने उसकी जान बचा ली और फिर उसे वापस चिड़ियाघर भेज दिया गया.
हमारे गाइड नसीम के मुताबिक़ इससे पहले बांके ने असम से आए अपने साथी गैंडे को तो जान से मार दिया था इसलिए जंगल विभाग के अधिकारियों को बड़ी चिंता रहती है कि कैसे यहाँ दूसरे नर गैंडे को बचा कर रखें.
कार्तिकेय नाम का एक नर गैंडा इस समय जवान है और उसकी विशेष देखभाल की जाती है.
बांके बूढा जरूर हो रहा लेकिन उसे यह बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कि उसकी रानियों की तरफ़ कोई और प्यार भारी नज़र से देखे.
Published here – https://www.bbc.com/hindi/entertainment/story/2008/03/080318_dudhwa_rhino.shtml