भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा अब भी बैंक और दूसरी वित्तीय सुविधाओं से वंचित है. ऐसे में स्वयं सहायता समूह लोगों की जिंदगी को बेहतर बनाने में खासे मददगार साबित हो रहे हैं.
देश के छह लाख गांवों में केवल तीस हजार गांवों में बैंकों की शाखाएं हैं. देश के सिर्फ 40 फीसदी लोगों के बैंकों में खाते हैं. और करीब तीन चौथाई किसान परिवारों को संगठित वित्तीय सेवाओं की जरूरत है. केवल दो फीसदी लोगों के पास बैंक के क्रेडिट कार्ड हैं. ऐसे में लोग अपनी छोटी मोटी जरूरतें पूरी करने के लिए साहूकारों के अलावा कहां जाएं?
दरअसल उन्हें कहीं जाने की जरूरत नही हैं. जरूरत है तो बस स्वयं और अपने पास पड़ोस को संगठित करके स्वयं सहायता समूह बनाने की.
स्वयं सहायता समूह या सेल्फ हेल्प ग्रुप नाम की इस योजना में पहले दस से बीस लोग अपना एक समूह बनाते हैं और आपस में चंदा जमा करके कुछ धन एकत्र करते हैं. फिर ये लोग उस धन से आपस में कर्ज देते हैं और वसूलते हैं.
आसान हुई जिंदगी
स्वयं सेवी संगठन इस काम में इन्हें प्रशिक्षण देते हैं और फिर करीब के बैंक से जोड़कर समूह का खाता खुलवाते हैं. सभी औपचारिकताएं पूरी होने के बाद बैंक इनकी कैश क्रेडिट लिमिट या ऋण साख तय कर देते हैं. फिर समूह उस धन से आपस में कर्ज बांटता है. बैंक को किस्त अदा करने की जिम्मेदारी समूह की होती है.
रायबरेली से इलाहाबाद जाने वाली सड़क से थोड़ा हटकर बेला टिकई करीब तीन हजार की आबादी वाला गांव है.
राजीव गांधी माहिला विकास परियोजना के स्वयं सेवकों ने बेला टिकई गांव में कई स्वयं सहायता समूह बनवाए. सरोज इनमें से एक समूह की अध्यक्ष हैं. उनका कहना है कि संगठित होने से न सिर्फ आर्थिक बल्कि सामाजिक लाभ भी हुआ.
वो बताती हैं, “पहला बदलाव तो ये आया है कि बोलने की हिम्मत बढ़ी है.हमारा पर्दा कम हुआ. हर जानकारी मिली. आज समूह में बैठकर हम अपनी परेशानी दूर कर रहे हैं. अगर हमारा समूह न होता, तो हम भैंस न पाल पाते और कोई धन्धा रोजगार न कर पाते, और न बच्चों को पढ़ा पाते.”
गांव की एक अन्य महिला संतोष कुमारी का कहना है कि समूह से जुड़ने से न केवल उन्हें साहूकार के चंगुल से मुक्ति मिली बल्कि वह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर भी हो गईं.
संतोष ने बताया, “ जब हम समूह में नही जुड़े थे तो बाहर से दस रुपये सैकड़ा महीने ब्याज पर कर्जा लिया था. जब हम समूह से जुड़े तो हमने दो रुपये सैकड़ा महीने ब्याज पर दस हजार रुपये का कर्ज लिया और उसे चुका दिया. फिर हम समूह से 15 हजार रुपये कर्ज लेकर दुकान चलाने लगे. दुकान से सारा खर्च निकलने लगा और फिर सिलाई का भी काम शुरू कर दिया.”
सरोज अब दुकान के अलावा घर के पास सिलाई केन्द्र चलाती हैं. इस केंद्र में कई महिलाएं सिलाई सीख रही हैं.
आत्मनिर्भर होती महिलाएं
इस गांव में इस तरह के कई समूहों को मिलाकर दुर्गा महिला ग्राम संगठन बना है. और फिर राही ब्लॉक के करीब साठ ग्राम पंचायतों के समूहों को मिलाकर शक्ति महिला संगठन बना है. इससे लगभग चौबीस हजार महिलाएं जुडी हैं.
ये समूह केवल आपस में कर्ज लेने देने का काम नही करते, बल्कि ये सरकार की पेंशन या सौर ऊर्जा जैसी कई विकास योजनाओं का लाभ भी अपने सदस्यों को दिलवाते हैं.
गांव से वापसी में दरियापुर में मेरी मुलाक़ात बैंक ऑफ बड़ोदा के ब्रांच मैनेजर जेपी गुप्ता से हुई. गुप्ता अपने इलाके में स्वयं सहायता समूहों के काम काज से खुश हैं, विशेषकर इसलिए कि ये समूह बैंक का कर्ज समय पर वापस करते हैं.
बैंक इन समूहों को दस फीसदी सालाना पर कर्ज देता है, जबकि समूह आपस में चौबीस फीसदी ब्याज लेते हैं. जो बचत होती है उससे समूह की पूंजी बढ़ती है और वह समूह के ही काम आती है.
रायबरेली और आसपास के इलाके में स्वयं सहायता समूह बनवाने में राजीव गांधी चैरिटबिल ट्रस्ट का बड़ा योगदान रहा है. यह ट्रस्ट राजीव गांधी महिला विकास परियोजना के माध्यम से नाबार्ड के साथ मिलकर महिलाओं को अपना समूह बनाने और उन्हें चलाने का प्रशिक्षण देता है.
ट्रस्ट के कार्यकारी अधिकारी एक आईएएस अफसर संपत कुमार हैं, जिन्हें आंध्र प्रदेश और मेघालय में इस तरह के काम के अनुभव के कारण यहां लाया गया है.
संपत कुमार से मिलकर नही लगता कि वे एक सीनियर आईएएस अफसर हैं, बल्कि वह एक सामाजिक कार्यकर्ता की तरह काम करते हैं.
संपत कुमार के मुताबिक ट्रस्ट के माध्यम से उत्तर प्रदेश के चालीस जिलों में करीब पैंतीस हजार समूह बनाए जा चुके हैं, जो महिलाओं को उनके गांव में ही स्वरोजगार दिलाकर उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बना रहे हैं.
‘फैलेगा सहायता समूहों का दायरा’
गांवों में स्वरोजगार के जो कार्यक्रम सफल हो रहे हैं उनमे पशुपलान प्रमुख है. उदाहरण के लिए अकेले रायबरेली जिले से रोजाना एक लाख लीटर दूध एकत्र होकर दिल्ली मदर डेयरी को जा रहा है.
नाबार्ड के अधिकारियों के अनुसार देश भर में करीब 75 पचहत्तर लाख स्वयं सहायता समूह विभिन्न बैंकों से जुड़े हैं. इनमे से करीब 48 लाख को बैंकों से सीधे ऋण की सुविधा हासिल है. इनमे से लगभग 82 फीसदी समूह महिलाओं के हैं.
नाबार्ड के आंकड़ों से पता चलता है कि स्वयं सहायता समूह आंदोलन दक्षिण भारत के राज्यों में अधिक लोकप्रिय है. कई राज्यों में तो पचहत्तर से लेकर सौ फीसदी तक ग्रामीण परिवार इन समूहों से जुड़े हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह यह बताई जाती है कि दक्षिण में राज्य सरकारें इस आंदोलन को प्रोत्साहित कर कर रही हैं.
राजनीतिक प्रोत्साहन के अभाव में उत्तर भारत में यह आंदोलन अब भी उतना नही फैल पाया है. उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में केवल 18 फीसदी ग्रामीण स्वयं सहायता समूह से जुड़े हैं.
नाबार्ड के उत्तर प्रदेश के क्षेत्रीय महाप्रबंधक एन कृष्णन कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में इन समूहों की संख्या बढाने के लिए प्रयास हो रहे हैं. कृष्णन ने कहा, “यूपी में स्वयं सहायता समूहों की संख्या बहुत कम है. अच्छे एनजीओ भी बहुत कम हैं. नाबार्ड अगले तीन साल में पांच लाख स्वयं सहायता समूह बनवाने के लिए कोशिश कर रहा है. इस कार्यक्रम बनाकर हम बैंकों को 31 जुलाई से पहले दे देंगे.”
माइक्रो फिन ट्रस्ट नेटवर्क के मैनेजिंग ट्रस्टी विंडो जैन का कहना है कि स्वयं सहायता समूह के गठन में कई संस्थाएं लगी हैं. लेकिन उत्तर प्रदेश में बैंकों का रुख बहुत सकारात्मक नही रहा है. सबसे बड़ी दिक्कत तो यही है कि बैंक खाता खोलने में बड़ी आनाकानी करते हैं.
बैंकों की अपनी समस्याएं हैं. ग्रामीण क्षेत्रों के कस्बों में केवल दो या तीन कर्मचारियों वाले स्टाफ से बैंक ब्रांच खोल दी जाती हैं. ऐसी ब्रांच बड़ी तादाद में ग्राहकों की सेवा नही कर सकते.
ऐसे में स्वयं सहायता समूह जैसी संस्थाओं की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है जो बैंक और आम लोगों के बीच कड़ी का काम करें.