करीब 30 साल पहले की बात है जब मैं वर्ष 1982 में पहली बार अयोध्या गया गया था.लेकिन मेरी इस पहली अयोध्या यात्रा का मकसद अयोध्या विवाद पर समाचार संकलन करना नहीं था.
तब तक अयोध्या से बाहर बहुत काम लोग रामजन्म भूमि बनाम बाबरी मस्जिद विवाद के बारे में जानते थे. यह मामला स्थानीय अदालत तक सीमित था. तब न राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति बनी थी और न ही बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी.
हम पत्रकार लोग जनमोर्चा के संपादक शीतला सिंह के निमंत्रण पर पत्रकार यूनियन के सम्मलेन के लिए अयोध्या गए थे. वहाँ हम मानस भवन नाम की धर्मशाला में रुके थे.
मगर साल 1982 में लखनऊ से गए हम पत्रकारों में से शायद ही किसी को यह पता रहा हो कि जहां हम लोग रुके हैं, ठीक उसी से सटकर वह राम जन्मभूमि–बाबरी मस्जिद की विवादित जगह है जो बाद में दुनिया ने कुछ चुनिंदा संवेदनशील और विवादित जगहों में गिनी जाएगी.
उन दिनों मैं हिन्दी दैनिक अमृत प्रभात के लिए काम कर रहा था. अमृत प्रभात के संवाददाता जेपी तिवारी अगल-बगल के मंदिरों को दिखाते हुए हमें उस इमारत में ले गए जो बाहर से मस्जिद दिखती थी, लेकिन उसके अंदर भगवान राम की मूर्तियां रखी थीं.
बाहर एक चबूतरे पर कीर्तन चलता रहता था, जिसे राम चबूतरा कहते थे. सनातन हिंदुओं की संस्था निर्मोही अखाड़े ने अब से कोई सवा सौ साल पहले इसी स्थान पर मंदिर बनाने की अदालती लड़ाई शुरू की थी. उससे पहले भी तमाम लड़ाइयां हुई, ऐसा बताया जाता है, लेकिन उनका कोई व्यवस्थित रिकार्ड नहीं है.
जिला मजिस्ट्रेट की मदद से मूर्तियां मंदिर के अंदर
22-23 दिसंबर 1949 की रात स्थानीय जिला मजिस्ट्रेट केके नैयर की मदद से मस्जिद के अंदर मूर्तियां रख दी गई थीं. इसके बाद विवादित इमारत को कुर्क करके पुलिस का पहरा बैठा दिया गया.
अदालत ने इमारत की देखरेख के लिए रिसीवर बैठा रखा था और केवल अधिकृत पुजारी ही अंदर जाकर भगवान की पूजा और भोग लगाने आदि का काम करते थे. बाकी लोग बाहर से ही दर्शन कर सकते थे.
साल 1982 में जब हम वहां गए, मात्र एक सिपाही इमारत के बाहर ड्यूटी दे रहा था. हम लोगों ने बेरोकटोक बड़ी आसानी से वहां सब कुछ देखा और चले आए.
दस साल बाद छह दिसंबर 1992 को इसी मानस भवन की छत से बाबरी मस्जिद का विध्वंस होते देखा. पिछले 20-30 सालों में उस जगह और पूरी अयोध्या का इतिहास-भूगोल सब कुछ बदल गया है.
मानस भवन धर्मशाला अब पूरी तरह से प्रशासन के कब्जे में है. यहां विवादित स्थल की सुरक्षा के लिए पुलिस और अर्धसैनिक बलों का कंट्रोल रूम बनाया गया है.
आसपास की लगभग 70 एकड़ जमीन केंद्र सरकार ने अधिग्रहित कर ली है, जिसमें कई मंदिर, धर्मशालाएं और मजारें वगैरह भी शामिल हैं.
विवादित मस्जिद के मलबे पर बने अस्थायी मंदिर में दर्शन के लिए अब तीर्थयात्रियों को कड़ी सुरक्षा में घुमावदार रास्तों से होकर गुजरना पड़ता है.
बीते तीन दशक में कितनी बार अयोध्या आना-जाना हुआ, याद नहीं. याद हैं तो बस कुछ तस्वीरें.
सरयू तट पर राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ की विशाल रैली
सात अक्टूबर 1984 को सरयू तट पर राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति की विशाल रैली के दृश्य अब भी याद हैं.
उस जगह पर अब राम की पैडी़ बन गई है और खुदाई से पुराने मंदिरों की इमारतें उभर आई हैं.
माना जाता है कि साल 1977 की करारी हार के बाद से इंदिरा गांधी को मुस्लिम समुदाय के राजनीतिक समर्थन का भरोसा कम रह गया था और उनका कुछ झुकाव हिंदू समुदाय की तरफ हो चला था.
उत्तर प्रदेश की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने विवादित परिसर से सटी जमीन राम-कथा पार्क बनाने के लिए अधिग्रहित की थी.
साल 1984 में बनी राम जन्म भूमि मुक्ति यज्ञ समिति के महामंत्री दाऊ दयाल खन्ना कांग्रेस के नेता थे और अध्यक्ष महंथ अवैद्य नाथ हिंदू महा सभा के. इसलिए कई लोगों का मानना है कि प्रारंभ में इस अभियान को इंदिरा गांधी का आशीर्वाद रहा होगा.
अक्तूबर के अंत में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राम जन्मभूमि मुक्ति आंदोलन कुछ दिनों के लिए थम गया था.
दो साल बाद एक फरवरी 1986 को तत्कालीन कांग्रेस सरकार की सहमति से फैजाबाद के जिला जज केएम पाण्डेय ने विवादित परिसर का ताला खुलवा दिया था.
दूरदर्शन पर लोगों ने देखा कि अब हिंदू समुदाय के लोग मस्जिद के अंदर बने मंदिर में जाकर दर्शन और पूजा कर सकते हैं.
इस घटना की प्रतिक्रया में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का जन्म हुआ और मुस्लिम समाज भी अदालत की लड़ाई सड़क पर ले आया.
फैजाबाद से राजीव गांधी का चुनाव अभियान शुरू
साल 1989 के लोकसभा चुनाव से पहले पूरे मामले में नया मोड़ आया. राजीव गांधी ने राम-राज्य के नारे के साथ फैजाबाद से अपना चुनाव अभियान शुरू किया.
अब तक सरकार की पहल पर विवादित स्थल के मालिकाना हक का मामला हाईकोर्ट ने अपने पास मंगाकर मौके पर यथास्थिति कायम रखने का आदेश दिया था.
लेकिन विश्व हिंदू परिषद के दबाव पर कांग्रेस सरकार ने चुनाव से ठीक पहले नवंबर 1989 में मस्जिद से करीब पौने दो सौ फुट की दूरी पर मंदिर का शिलान्यास करा दिया.
माना जाता है कि राजीव गांधी ने संत देवरहा बाबा की सलाह पर शिलान्यास की अनुमति दिलवाई थी. उम्मीद यह थी कि इससे शायद काशी और मथुरा की तरह मंदिर और मस्जिद अगल-बगल बनने का रास्ता खुले, जो नही हुआ.
शिलान्यास से मुस्लिम समुदाय में नाराजगी की वजह से कांग्रेस चुनाव हार गई थी.
एक पत्रकार के रूप में 30 अक्टूबर 1990 के वह दृश्य अब भी आंखों में घूम जाते हैं जब सरयू पुल पर तैनात पुलिस बल इस पार गोंडा बस्ती की तरफ से आने वाले कारसेवकों को रोकने के लिए लाठियां चला रहे थे और कारसेवक उस सिपाहियों के पैर छूकर कहते थे कि हम तो जन्मभूमि तक कारसेवा करने जाएंगे.
उस समय मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे और वीपी सिंह भारत के प्रधानमन्त्री. दोनों नेताओं में अपने को मुस्लिम हितैषी साबित करने की होड़ थी.
इनके बयानों से हिंदू समुदाय का एक बड़ा तबका नाराज हुआ, जिसका लाभ विश्व हिंदू परिषद को हुआ.
कानून तोड़ने वाली भीड़ अगर निहत्थी हो और उस पर धार्मिक जूनून सवार हो तो पुलिस और मजिस्ट्रेट का काम कितना मुश्किल हो जाता है, यह बात मुझे 30 अक्तूबर 1990 को समझ में आई.
कारसेवकों ने मस्जिद पर झंडा फहराया
तमाम पुलिस बल और मजिस्ट्रेटों को पीछे धकेल कुछ कारसेवक उस दिन विवादित मस्जिद पर चढ़कर झंडा फहराने में कामयाब हो गए थे. मगर पुलिस ने कार्रवाई करके मस्जिद को क्षतिग्रस्त होने से बचा लिया था.
दो दिन बाद दो नवंबर, 1990 को अयोध्या की गलियों में कारसेवकों और सुरक्षा बलों की झडपों में कई लोग मारे गए.
ऐसे मौकों पर अफवाहों और ख़बरों में फर्क कर पाना बड़ा मुश्किल काम था. कई पत्रकार साथी तो बिलकुल कारसेवकों की तरह व्यवहार करने लगे थे. अखबारों में बढ़ा-चढाकर ख़बरें छपीं कि सैकड़ों कारसेवक मारे गए और सरयू का पानी खून से लाल हो गया.
बाद में ये ख़बरें गलत साबित हुईं. प्रेस काउन्सिल ने कई अखबारों, उनके संपादकों और संवाददाताओं की निंदा की. अक्तूबर 1992 में मैं साप्ताहिक संडे मेल के अलावा बीबीसी के लिए भी काम करने लगा था.
30 नवंबर तक बड़ी संख्या में कारसेवक अयोध्या पहुंच गए थे. इसलिए मैं भी वहां गया और तीन दिसंबर को लखनऊ लौटा. इस बीच कारसेवकों ने अयोध्या में कई मजारें वगैरह तोड़ दी थीं. माहौल काफी गरम था.
उस जमाने में न इंटरनेट था, न मोबाइल और न पीसीओ. फैक्स से खबरें भेजने के लिए केन्द्रीय तारघर जाना पड़ता था, जहां एक साथ बड़ी संख्या में पत्रकार पहुंचने से बड़ी कठिनाई हो रही थी.
इसलिए लखनऊ लौटकर मैंने यहां टेलीफोन विभाग के बड़े अधिकारियों से अनुरोध किया कि फैजाबाद सीटीओ में फोन फैक्स की अतिरिक्त लाइनें लगा दी जाएं.
पांच दिसंबर की शाम को अचानक अयोध्या फैजाबाद में तनाव बढ़ गया. विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक सिंघल ने कारसेवकों की सभा में बीबीसी और पश्चिमी मीडिया के खिलाफ भाषण दे दिया जिसके बाद कारसेवकों ने कई टीवी कैमरा वालों पर हमला शुरु कर दिया.
बीबीसी का प्रसारण
उस दिन बीबीसी टेलीविजन न्यूज में अक्टूबर 1990 के कुछ पुराने चित्र दिखाए गए थे, जिसने पुलिस ने कारसेवकों पर बल प्रयोग किया.
इससे अशोक सिंघल को गलतफहमी हो गई. उन्होंने समझा कि पांच दिसंबर को कारसेवकों पर बल प्रयोग की गलत खबर दी गई है.
इसलिए पांच दिसंबर की देर रात तक मार्क टुली और मैं विश्व हिंदू परिषद और संघ परिवार के नेताओं की गलतफहमी दूर करने में लगे रहे, जिससे अगले दिन कार सेवा का समाचार संकलन करने में पत्रकारों को परेशानी न हो.
तमाम पत्रकारों के साथ मैं और मार्क टुली सुबह करीब दस बजे मानस भवन की छत पर पहुँच गए. सामने करीब दो सौ फुट की दूरी पर बाबरी मस्जिद थी, जिसे लोहे की मजबूत बैरीकेडिंग से घेरा गया था. राइफल लिए पुलिस और अर्धसैनिक बल तैनात थे.
दाएं हाथ की तरफ सीता रसोई की छत पर पुलिस और प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारी थे.हमारे बाएं हाथ की तरफ राम कथा कुंज के मंच पर भाजपा, विहिप और बजरंग दल के नेता भाषण दे रहे थे. करीब डेढ़ लाख से अधिक कार सेवक चारों तरफ पूरे परिसर में थे.
मानस भवन और बाबरी मस्जिद के बीच की जगह में बड़े-बड़े साधु-संत थे, जहां प्रतीकात्मक कार सेवा होनी थी.
साढ़े ग्यारह बजे तक लगभग सब कुछ सामान्य था. अचानक कारसेवकों के जत्थे नारे लगाते हुए, मस्जिद की तरफ दौड़े. शुरू में पुलिस ने रोकने की कोशिश की. मगर चंद मिनटों में कई कारसेवक मस्जिद की गुम्बद पर पहुंच गए. झंडा फहराया. कैम्पस में नारों की आवाज तेज हो गई. मस्जिद के ऊपर पहुंचे कार सेवकों ने गैंती-कुदाल से गुम्बद तोड़ना शुरू कर दिया.
सारे अफसर मूकदर्शक बने रहे
अब तक मस्जिद की सुरक्षा में लगे राइफलधारी पुलिस वाले बाहर आ चुके थे. सारे अफसर मूक दर्शक थे.
साल 1949 में सिर्फ जिला मजिस्ट्रेट मूर्तियां, मस्जिद के अंदर रखने वालों का साथ दे रहे थे, इस दिन पूरी राज्य सरकार उनके साथ थी. भारत सरकार ने संविधान के संघीय ढांचे की आड़ में सीधे तौर कुछ नही किया था और सुप्रीम कोर्ट ने प्रतीकात्मक कार सेवा करवाने के लिए अपना प्रेक्षक तैनात कर रखा था.
आजाद भारत में शायद यह पहली घटना थी जब पुलिस-प्रशासन और राज्य की मशीनरी इस तरह खुले आम एक धर्म के लोगों की दूसरे धर्म का पूजा स्थल तोड़ने में मदद कर रही थी.
शायद मर्यादा पुरुषोत्तम के अनुयायी बाबर के सिपहसालारों का बदला ले रहे थे.
कारसेवकों ने फोटो खींच रहे पत्रकारों पर भी हमले शुरू कर दिए और टेलीफोन के तार तोड़ दिए.
इसीबीच विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता मानस भवन की छत पर आकर पत्रकारों को वहां से भगाने लगे.
मार्क टुली और मैं छत से उतरकर नीचे आए. अयोध्या तारघर की टेलीफोन लाइन भी तोड़ दी गई थीं.
इसलिए हम खबर देने के लिए बाहर-बाहर दर्शननगर होते हुए फैजाबाद तारघर पहुंचे.
खबर देकर मार्क टुली दोबारा अयोध्या गए. मुझे सबसे बड़ी चिंता सता रही थी मार्क टुली की सुरक्षा की, जिन्हें उग्र कार सेवकों के
एक गुट ने बंधक बना लिया था. अयोध्या के एक महंथ और एक अधिकारी की मदद से मार्क टुली कार सेवकों की कैद से निकल पाए.
शाम को कारसेवकों के बंधन से मुक्त होकर मार्क शान-ए-अवध होटल आए जो उन दिनों हमारा दूसरा घर और दफ्तर जैसा था.
खबर सबसे पहले बीबीसी पर
उस दिन बीबीसी सुनकर ही लोगों को मालूम हुआ कि विवादित बाबरी मस्जिद पूरी तरह ध्वस्त हो गई है. हिन्दी सेवा में चूंकि मेरी आवाज में यह खबर आई थी, इसलिए मिलने पर आज भी कई लोग उस खबर का जिक्र करते हैं.
मगर ताज्जुब मुझे तब हुआ जब कुछ साल पहले फैजाबाद के स्थानीय पत्रकार अरशद अफजाल ने मुझे उस खबर की ऑडियो रिकार्डिंग का टेप दिया.
तब छह दिसंबर की शाम शायद स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे मुश्किल शाम थी, जब सूर्यास्त के साथ ही भारत के भविष्य पर भी प्रश्न चिन्ह लगने लगे थे.
दिल्ली सरकार में मतिभ्रम की स्थिति देख कई प्रेक्षकों को लग रहा था कि कहीं देश एक और विभाजन की ओर तो नही बढ़ रहा.
मार्क ने यही सवाल मुझसे किया- पंडित जी आप क्या सोचते हैं अब क्या होगा?
मेरे मुंह से अचानक निकला- भाजपा ने सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को मार दिया. मार्क अब भी इस वाक्य को याद करते रहते हैं.
दो दिन तक अयोध्या में जैसे कोई सरकार नहीं थी. इस बीच बांस-बल्ली और तम्बू-कनात से अस्थायी राम मंदिर बनकर तैयार हो गया.
अयोध्या में कार सेवकों की संख्या घटने के बाद आठ दिसंबर की सुबह पुलिस प्रशासन ने विवादित स्थल पर वापस कब्जा कर लिया. संयोग से यह खबर भी सुबह सबसे पहले बीबीसी ने ही प्रसारित की.
इन खबरों से दूर-दूर तक लोग मार्क टुली के साथ-साथ मुझे भी जान गए.
परमहंस और हाशिम अंसारी की यारी
अयोध्या में एक दशक बाद फिर घमासान हुआ, तब दिल्ली और लखनऊ दोनों जगह राम भक्तों की सरकार थी.
विश्व हिंदू परिषद चाहती थी कि उसे अयोध्या के अधिग्रहित परिसर में कुछ ज़मीन मिल जाए जहां से वह मंदिर निर्माण का कुछ काम शुरू कर सके.
वाजपेयी और आडवाणी दोनों विपक्ष में रहते हुए कहते थे कि कानून बनाकर विवादित जमीन, राम मंदिर बनाने के लिए दे दी जाए.
मगर अदालत के आदेशों के चलते सरकार में होते हुए भी वे ऐसा नही कर सके. इतना ही नही साल 2002 में शिलादान के लिए आने वाले कारसेवकों को भाजपा शासन में पुलिस और अर्धसैनिक बलों ने डंडों से खदेडा.
संभवतः इसी के बाद मंदिर समर्थकों का भाजपा नेताओं से मोहभंग हो गया.
अयोध्या जाने पर अब मुझे एक इंसान की कमी बेहद खलती है. वह हैं महंथ राम चंद दास परम हंस. परमहंस से मैं साल1982 में अपनी पहली अयोध्या-यात्रा में मिला था और उसके बाद लगभग हर बार उनसे भेंट होती थी.
वह उन लोगों में से थे जो वर्ष 1949 में विवादित मस्जिद में मूर्तियां रखने में शामिल थे और राम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन के मुख्य चेहरा थे.
इसके बावजूद अयोध्या फैजाबाद के मुसलमानों से उनकी गहरी दोस्ती थी जो छह दिसंबर को भी नही टूटी.
परमहंस और बाबरी मस्जिद के मुख्य पैरोकार हाशिम अंसारी न केवल एक-दूसरे के घर आते-जाते थे, बल्कि मुक़दमे की पैरवी के लिए एक ही कार से अदालत जाते थे.
एक बार मैंने तय किया कि इन दोनों का इंटरव्यू एक साथ रिकार्ड करूं.
हाशिम दिगंबर अखाड़ा पहुंचे. दोनों मेरे अगल-बगल बैठे और मैंने लंबी बातचीत रिकॉर्ड की.
बड़ी साफगोई से दोनों ने कहा कि जैसे दो वकील अदालत में एक दूसरे के खिलाफ बहस करने के बाद बाहर एक साथ चाय पीते हैं, वैसे ही वे दोनों अपने-अपने धर्म के अनुसार मंदिर और मस्जिद के लिए मुकदमा लड़ने के बावजूद आपस में दोस्त हैं.
source: https://www.bbc.com/hindi/mobile/india/2012/12/121207_ayodhya_babri_rdt_memoirs_sdp.shtml