राम दत्त त्रिपाठी
वरिष्ठ पत्रकार, बीबीसी हिंदी के लिए
5 जून 2019
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समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव अपने राजनीतिक जीवन के सबसे मुश्किल दौर से गुज़र रहे हैं. मायावती ने उनको मझधार में छोड़ दिया है और पारिवारिक कलह सुलझने का नाम नहीं ले रही है.
व्यक्तिगत स्तर पर अच्छे रिश्तों की दुहाई देते हुए भी मायावती ने अपने बयान में एक बड़ी चोट कर दी कि “सपा का बेस वोट अपने यादव बाहुल्य सीटों पर भी टिका नही रहा.”
अखिलेश यादव के चाचा और प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के मुखिया शिवपाल यादव का नाम न लेते हुए भी मायावती ने कह दिया कि सपा प्रमुख अपने परिवार को एकजुट नही रख पाए और उन्हें अपनी यादव बिरादरी का भी विश्वास हासिल नहीं है. उन्होंने कहा, “ना जाने किस नाराज़गी के तहत भीतरघात हुआ और सपा के मज़बूत उम्मीदवार भी हार गए.”
परम्परागत यादव बहुल सीटों से हारने वाले प्रमुख उम्मीदवार हैं अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव (कन्नौज) और दो चचेरे भाई अक्षय यादव ( फ़िरोज़ाबाद ) तथा धर्मेन्द्र यादव (बदायूँ).
मायावती ने अगले विधानसभा उपचुनाव अकेले लड़ने की घोषणा करते हुए भी यह गुंजाइश छोड़ी है कि आगे चलकर फिर गठबंधन हो सके, बशर्ते कि, “सपा प्रमुख अपने लोगों को मिशनरी बनाने में कामयाब हों.”
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प्रेक्षक कहते हैं कि बसपा प्रमुख ने पिछली बार की तरह आरोप-प्रत्यारोप के साथ गठबंधन नहीं तोड़ा है, इसलिए आगे का रास्ता खुला है. अगर भाजपा का दबदबा इसी तरह बना रहता है तो आश्चर्य न होगा कि कुछ शर्त के साथ फिर गठबंधन हो जाए.
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समाजवादी पार्टी के लोग मानकर चल रहे हैं कि गठबंधन समाप्त हो गया. इसीलिए अखिलेश यादव ने ग़ाज़ीपुर में अपनी पहली प्रतिक्रिया में कहा है कि समाजवादी पार्टी भी विधानसभा उपचुनाव अकेले लड़ेगी सपा को अगला विधानसभा चुनाव भी अकेले दम पर लड़ने की तैयारी करनी होगी.
प्रेक्षक मायावती की इस बात से सहमत नहीं हैं कि यादव वोट सपा के साथ नहीं रहा. वास्तव में सपा के साथ रहने से न केवल पिछड़ा बल्कि मुस्लिम वोट भी मिला और तभी उन्हें शून्य से बढ़कर दस सीटें मिलीं, जो अकेले सम्भव नहीं थीं.
जातीय दीवारें टूटीं?
याद दिला दें कि इससे पहले लोकसभा उपचुनाव में दोनों दलों में तालमेल के चलते सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी फूलपुर, गोरखपुर और कैराना सीटें हार गयी थी, जिससे गठबंधन की बुनियाद पड़ी.
मगर हाल ही में सम्पन्न हुए आम चुनाव में मोदी लहर ने तमाम जातीय दीवारें तोड़ दीं, जिससे क़रीब एक दर्जन सीटें हारने के बावजूद भाजपा का वोट प्रतिशत बढ़ा और सपा-बसपा का घट गया.
मायावती स्वयं भी दलित वोट का एक हिस्सा भाजपा में जाने से नहीं रोक पायीं. यह भी हक़ीक़त है कि कांशीराम के तमाम मिशनरी साथी बहुजन समाज पार्टी छोड़कर जा चुके हैं और उसका बेस वोट भी स्वजातीय जाटव तक सीमित रह गया है.
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जानकार कहते हैं कि वास्तव में मायावती ने गठबंधन इसलिए तोड़ा क्योंकि उनकी उम्मीद के मुताबिक़ न तो क़रीब साठ सीटें मिलीं और न ही संसद त्रिशंकु हुई, जिससे प्रधानमंत्री की कुर्सी की दावेदारी का मौक़ा उन्हें मिलता.
गठबंधन की दूसरी छिपी शर्त यह थी कि अखिलेश यादव अगले विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री पद के दावेदार होंगे.
मायावती ने गठबंधन समाप्त कर अपने को इस बंधन से मुक्त कर लिया है और अब वह स्वयं मुख्यमंत्री पद वापस पाने की कोशिश करेंगी. गठबंधन समाप्त होने का असली कारण यही प्रतीत होता है.
इस तरह मायावती अब अखिलेश यादव की सहयोगी नहीं प्रतिद्वंद्वी होंगी.
जहाँ तक अखिलेश यादव का सवाल है उनकी मुश्किलें मुख्यमंत्री रहते ही 2014 में शुरू हो गयीं थीं, जब समाजवादी पार्टी को लोक सभा में केवल पाँच पारिवारिक सीटें मिलीं थीं और उनमें से तीन इस बार हार गयीं.
उसके बाद सत्ता में हिस्सेदारी को लेकर पारिवारिक कलह विस्फोटक हो गयी. पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव को हटाकर अखिलेश ख़ुद अध्यक्ष बन गए.
पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी के अनेक वरिष्ठ नेता या तो दल छोड़कर चले गए अथवा हाशिए पर कर दिए गए.
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सपा ने कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा लेकिन दोनों को फ़ायदे के बजाय नुक़सान हुआ. जनता ने अखिलेश यादव के विकास मॉडल एक्सप्रेसवे रोड, मेट्रो रेल अथवा गोमती तट के सुंदरीकरण को पर्याप्त नही माना.
माया की सलाह मानेंगे अखिलेश?
क्या मायावती की सलाह मानकर अखिलेश यादव अपनी पार्टी और कार्यकर्ताओं को किसी बड़े मिशन से जोड़ सकेंगे, यह एक बड़ी चुनौती है.
पार्टी के तमाम पुराने नेता जो डॉक्टर लोहिया, चरण सिंह और जनेश्वर मिश्रा से प्रेरित थे, वे या तो घर बैठ गए या दूसरे दल में चले गए हैं. इस समय पार्टी कार्यकर्ताओं को प्रेरित करने वाला कोई सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक दर्शन नहीं है. और न ही उसकी कमान मुलायम सिंह यादव जैसा जुझारू और संगठक नेता के हाथ में है.
मुलायम सिंह ने अपनी बिरादरी के अलावा काछी, कुर्मी, लोधी, गुर्जर और जाट पिछड़ी जातियों के अलावा दलितों में पासी और अगड़ी जातियों और व्यापारी वर्ग के नेताओं के भी जोड़ रखा था. जो सत्ता या संगठन में हिस्सा न मिलने से निराश होकर इस समय भाजपा के साथ गोलबंद हैं.
राष्ट्रवाद और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के चलते इन्हें वापस लाना आसान नहीं होगा.
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अखिलेश यादव की सबसे बड़ी कमज़ोरी समाजवादी पार्टी की धुरी सैफई के यादव परिवार को एकजुट न रख पाना है जिसकी जड़ें प्रदेश के बड़े भूभाग में फैलीं थीं.
सत्ता और संगठन पर एकाधिकार के चलते पिता मुलायम सिंह यादव के अलावा सौतेले भाई प्रतीक के परिवार से उनके रिश्ते ठीक नहीं हैं.
चाचा शिवपाल ने तो अलग पार्टी बनाकर खुल्लम खुल्ला सपा को हराने की कोशिश की.
अखिलेश अब सत्ता के साथ-साथ विपक्ष का भी अनुभव हासिल कर चुके हैं. उम्र उनके पक्ष में है.
अगर वह अपनी और पार्टी की कमज़ोरियों को पहचान कर उन्हें दूर कर लेते हैं तो यह असम्भव नहीं कि वह फिर एक राजनीतिक शक्ति बनकर उभरें. अन्यथा “मोदी रिपब्लिक” में आगे का रास्ता बहुत मुश्किल है.
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