रेडियो माध्यम: जंगल, समुन्दर और ऊँचे ऊँचे पहाड़- कहीं भी सुन लीजिए

 यह भी ध्यान में रखना होता है कि हमारे कुछ श्रोताबहुत कम पढ़े लिखे हों या अक्षर ज्ञान बिलकुल  होंउनको उस समाचार के सम्बंधित सन्दर्भों या पृष्ठभूमिका जानकारी  होइसलिए जहां जरुरी लगे उससमाचार की पृष्ठभूमि या सन्दर्भ जरुर बताना चाहिएताकि पूरी बात समझ में आये.

मुझे मेरे बचपन की याद है. गाँव में एक छोटे संदूक नुमा रेडियो सेट घर के बाहर चबूतरे पर रखा होता था. लोग उसके आस – पास बैठकर समाचार सुनते और फिर आपस में चर्चा करते. भारत चीन या भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान समाचार सुनने की जिज्ञासा और प्रबल हो जाती. कई लोग रेडियो को खूंटी पर टांग कर सुनते या फिर साइकिल पर टांगकर सुनते हुए चलते.

इलाहाबाद में प्रतियोगी छात्र शाम को रेडियो पर समाचार सुनते हुए खाना भी बनाते हैं. चलती हुई कार या बस पर रेडियो सुनना भी आम बात है.शाम को थककर घर आने पर आँख बंद कर बिस्तर पर लेटे हुए भी रेडियो पर समाचार सुन सकते हैं और आफिस जाने की जल्दी में दाढ़ी बनाते हुए भी.

नई टेक्नोलोजी आने के बाद अब बहुत से लोग अपने मोबाइल फोन पर रेडियो सुनते हैं और दूसरे लोग डेस्क टॉप या लैप टॉप कंप्यूटर या आई पैड पर. हो सकता है भविष्य में हाथ की घडी में भी रेडियो फिट हो जाए.

कहने का मतलब यह कि तकनीकी बदलाव के साथ रेडियो सेट के स्वरुप में और भी बदलाव आयें.लेकिन एक चीज नही बदलनी है और वह है साउंड या ध्वनि के जरिये समाचार सुनना. रेडियो केवल सुनना आसान नही है, रेडियो कार्यक्रम बनाना और प्रसारित करना भी आसान है.पड़ोसी देश नेपाल में माओवादी गुरिल्ले अपना अपना चलता फिरता रेडियो स्टेशन चलाते थे.

भारत में इमरजेंसी के दिनों में अक्सर हमें जेल के भीतर बी बी सी के हवाले से ख़बरें मिल जाती थीं ,क्योंकि दूसरे देश लन्दन से प्रसारित होने वाले समाचारों को स्थानीय भारत सरकार सेंसर नही कर सकती थी. शोर्ट वेव और मीडियम वेव रेडियो की रेंज इतनी ज्यादा है कि स्थानीय सरकारें उनको सेंसर , रोक या नियंत्रित नही कर सकतीं.

रेडियो न तो बिजली का मोहताज और न ही किसी डिश एंटीना का. इसलिए जंगल , समुद्र या पहाड़ों और और विशेष रूप से प्राकृतिक विपदा के समय भी सुना जा सकता है. प्राकृतिक विपदा से पीड़ित लोगों को राहत सहायता पहुंचाने में भी रेडियो मददगार हो सकता है. इस तरह रेडियो एक सर्व सुलभ और बहुत ही सहज और सरल समाचार माध्यम है. लेकिन दुर्भाग्य है कि भारत में रेडियो समाचार अभी तक आजाद नही है. इस कारण यहाँ रेडियो समाचार का विकास और विस्तार नही हो पाया है.

टेलीविजन के मुकाबले रेडियो के लिए समाचार संकलन और प्रस्तुतीकरण कम खर्चीला है. एक रिपोर्टर फील्ड में अकेले ही रेडियो के लिए समाचार संकलन से लेकर प्रस्तुतीकरण का काम कर सकता है. प्रसारण केंद्र पर भी टेलीविजन के मुकाबले बहुत छोटी टीम रेडियो प्रसारण या प्रस्तुतीकरण का कम कर सकती है.

आप रेडियो समाचार प्रसारण केंद्र पर हों या फील्ड में कुछ बातों का ध्यान रखना निहायत जरूरी है.

रेडियो पर समाचार सुनने वाले यानि श्रोता की कई सीमाएं हैं. इसलिए रेडियो प्रसारक का दायित्व है कि वह अपने श्रोता की सीमाओं और जरूरतों का ध्यान रखे.

सबसे जरूरी बात यह कि रेडियो श्रोता केवल एक ज्ञानेन्द्रिय कान के सहारे आपकी बात को ग्रहण कर सकता है. टेलीविजन पर वह सीधे सब कुछ देख और सुन रहा होता है अथवा आप पिक्चर्स और ग्राफिक्स के जरिये अपनी पूरी कहानी उस तक पहुंचा सकते हैं.

रेडियो में आपको अपने शब्दों से चित्र बनाकर श्रोता को वह सब कुछ दिखाना होता है जो आपने देखा होता है या देख रहे होते हैं.

एक अखबार का पाठक कोई कठिन शब्द आने पर डिक्शनरी देख सकता है या किसी से पूछ सकता है , लेकिन रेडियो श्रोता को यह सुविधा नही . अगर कोई एक शब्द उसे समझ नही आया और वह उसमे अटक गया तो आगे के एक दो या ज्यादा वाक्य पर वह ध्यान भी नही दे पायेगा और बात उसके पल्ले नही पड़ेगी.

यही वजह है कि रेडियो समाचार में वाक्य छोटे छोटे होने चाहिए , वह भी बोलचाल के लह्जे में जैसे आप किसी को फोन पर कोई जानकारी दे रहे हों.

बोलने की गति भी सामान्य हो , ताकि सुनने वाले को साथ- साथ आपकी बात समझने का मौक़ा मिलता चले.

मेरा तो मानना है कि जहां तक हो सके , पूरी स्क्रिप्ट लिखित न हो . जरूरी जानकारी , नाम और आंकड़े संक्षेप में लिखकर अपने साथ रखें और उनके सहारे बातचीत के लहजे में बोलें.

स्क्रिप्ट लिखित होने पर अटकने का अंदेशा रहता है, क्योंकि दिमाग को दोहरी मेहनत करनी होती है.पहले लिखे हुए तो आँखों के जरिये पढ़ना , दिमाग में उसे समझना और फिर बोलना.

यही वजह है कि जब आप आमने – सामने बात करते हैं या फोन पर बात करते हैं तो नही अटकते ,लेकिन लिखा हुआ पढ़ने पर अटकते हैं.

पूरी स्क्रिप्ट लिखित न होने का एक लाभ यह भी होता है कि अगर प्रसारण के बीच बीच में समय की कमी हो जाए तो आप बिना अटके और कुछ छोड़े पूरी बात को समेत कार संक्षेप में कह सकते हैं.

इसका यह मतलब नही कि लिखित स्क्रिप्ट होनी ही नहीं चाहिए . कई लोग तो भूलने के डर से अपना नाम भी लिखकर स्टूडियो ले जाते हैं.

लेकिन लिखित स्क्रिप्ट भी बोलचाल के लहजे में ही होनी चाहिते , जिससे पढ़े समय बोझिल ने लगे.इसलिए कई संस्थाओं में स्क्रिप्ट बोलकर लिखाने का चलन है. अगर सात्फ़ की कमी से ऐसा संभव न हो तो खुद ही बोलते हुए लिखना चाहिए और स्टूडियो जाने से पहले या रिकार्ड करने से पहले जोर से बोलटे हुए पढकर अभ्यास कर लेना चाहिए.

मेरा मानना है कि एक रेडियो पत्रकार को हर हालत में अपनी मौलिकता बनाए रखनी चाहिए . किसी भी हालत में किसी दूसरे मशहूर प्रसारक की आवाज या शैली की नक़ल बिलकुल नही करनी

रेडियो समाचार में आंकड़ों का इस्तेमाल करते समय विशेष सावधानी रखनी चाहिए . आंकड़ों को एकदम वैसा ही पढ़ने के बजाय , जहां तक संभव हो राउंड फीगर में कर लेना चाहिए तो अटकेंगे नही.

एक रेडियो पत्रकार को यह जानना जरूरी होता है कि उसके श्रोता कौन हैं . वह कहाँ रहते हैं. स्थानीय हैं. देश भर में फैले हैं या कई देशों में.

अगर श्रोता कई प्रान्तों या देशों में फैले हैं तो ऐसे शब्दों या मुहावरों का प्रयोग न करें जो सबकी समझ में न आयें, या जिनके एक से अधिक अर्थ निकलते हों.

हमें यह भी ध्यान में रखना होता है कि हमारे कुछ श्रोता बहुत कम पढ़े लिखे हों या अक्षर ज्ञान बिलकुल न हों. उनको उस समाचार के सम्बंधित सन्दर्भों या पृष्ठ भूमि का जानकारी न हो. इसलिए जहां जरुरी लगे उस समाचार की पृष्ठभूमि या सन्दर्भ जरुर बताना चाहिए, ताकि पूरी बात समझ में आये.

जरूरी नही है कि हर श्रोता बुलेटिन को शुरू से आखिर तक सुने. इसलिए मुख्या समाचार या हेड लाइन्स बीच बीच में दोहराना चाहिए.

कितना भी महत्वपूर्ण और बड़ा समाचार क्यों न हो उसे निर्धारित समय में ही पूरा करना होता है ,क्योंकि बुलेटिन का समय निश्चित होता और उस बुलेटिन के अंदर भी हर विषय का समय निर्धारित होता है.

अगर रिपोर्टर निर्धारित अवधि से अधिक लंबा समाचार या पॅकेज भेजता है तो अंतिम क्षण में काटे समय उसके महत्वपूर्ण अंश कट सकते हैं , या फिर अगर वह लाइव है तो प्रजेंटर

उसे बीच में ही रोककर दूसरे विषय की तराफ बढ़ जाएगा, क्योंकि उसे हर हालत में अपनी बुलेटिन निश्चित समय में पूरी करनी होती है. ऐसा न हुआ तो कई बार प्रजेंटर भी अपनी बात पूरी किये बिना ऑफ एयर हो जाता है और यह स्थिति बहुत खराब होती है.

रेडियो समाचार

रेडियो समाचार भले ही संक्षिप्त और सरल भाषा में लिखे और बोले जाते हैं , लेकिन समाचार पत्र अथवा समाचार एजेंसी की तरह इनमे भी समाचार के सभी जरुरी तत्वों का समावेश आवश्यक है.यानि फाइव डब्ल्यूस के उत्तर श्रोता को मिलने चाहिए.

तमाम गहमागहमी अथवा तथ्यों के बीच रिपोर्टर को यह तय करना जरुरी है कि उसमे नया क्या है ?जो कुछ नया है , श्रोता को पहले से नही मालूम है , वही समाचार है.

श्रोता को यह भी मालूम होना चाहिए कि उस समाचार का स्रोत क्या है?

यदि उस समाचार में एक से अधिक पहलू या पक्ष हैं तो उनका समावेश होना चाहिए , तभी समाचार निष्पक्ष कहा जाएगा.

समाचार की भाषा संतुलित होनी आवश्यक है.

पर वास्तव में रेडियो समाचार की विशेषता है उसमे घटनास्थल से एकत्र की गयी साउंड्स अथवा आवाजों का समावेश. यही आवाजें रेडियो समाचार को समाचार पात्र अथवा समाचार एजेंसी से अलग करती हैं.

रेडियो पत्रकार के उपकरण

एक रेडियो पत्रकार के पास आवाजें रिकार्ड करने और फिर उन्हें काट- छांट कर रेडियो पॅकेज मिक्स करने के लिए उपकरण होना अनिवार्य है.

मैंने जब १९९२ में रेडियो का काम शुरू किया था उस समय मेरे पास एक टेप रिकार्डर होता था. मै फील्ड से एकत्र की गयी आवाजें और अपनी स्क्रिप्ट फोन पर लन्दन रिकार्ड कर देता था और वहाँ प्रोड्यूसर उसे मिक्स करके रिपोर्ट या पॅकेज बना लेते थे.

लेकिन डिजिटल टेक्नोलोजी और इंटरनेट ने हमारे कामकाज का सारा तरीका बदल दिया. अब रिपोर्टर आडियो मिक्सिंग सोफ्टवेयर के जरिये अपना पॅकेज खुद तैयार करके भेजने में सक्षम है.

कई रेडियो स्टेशन तो अब आई फोन या दूसरे स्मार्ट फोन के जारिये ही रिकार्डिंग , मिक्सिंग और भेजने का काम करने लगे हैं.

लेकिन अच्छी क्वालिटी के रेडियो के लिए अलग रिकार्डिंग मशीन , हेडफोन , माइक्रोफोन और साउंड मिक्सिंग सोफ्टवेयर होना जरूरी है.

अच्छी रेडियो न्यूज डिस्पैच या फीचर का सारा दारोमदार इस बात पर है कि रिपोर्टर ने फील्ड से कैसी और कितनी आवाजें एकत्र की हैं.

इसलिए फील्ड में जाने से पहले अपने उपकरणों की अच्छी तरह से जांच करना जरुरी होता है. यह देख लें कि सभी जरुरी रिकार्डिंग उपकरण , सहायक उपकरण , चिप , लीड, बैटरी , लैपटॉप और इंटरनेट कनेक्शन आदि दुरुस्त हैं.

एक पत्रकार को किसी असाइनमेंट के लिए फील्ड में जाने से पहले उस विषय से सम्बंधित जानकारी एकत्र कर लेनी चाहिए . साथ में उन लोगों की सूची और फोन नंबर जिनसे और जानकारी मिल सकती है.

अलग- अलग जगह रिकार्डिंग में अलग – अलग तरह की सावधानी रखनी होती है.

मसलन , यदि किसी एक व्यक्ति का इंटरव्यू कर रहे हैं तो अलग सावधानी , प्रेस कांफ्रेंस रिकार्ड कर रहे हैं तो अलग , कोई जुलूस है तो अलग अन्य घटना दुर्घटना है तो अलग. मगर हर समय यदि हेड फोन पर माँनिटर कर सकें कि वास्तव में क्या रिकार्ड हो रहा है तो वह उत्तम होता है. इससे रिपोर्टर को यह पता चलता रहता है कि साथ में और क्या बैकग्राउंड आवाजें भी रिकार्ड हो रही हैं.

उदाहरण के लिए यदि आप किसी अकेले व्यक्ति का इंटरव्यू रिकार्ड कर रहे हैं तो सबसे पहले अपना ,उस व्यक्ति का और साथ के दूसरे लोगों का फोन स्विच ऑफ अथवा साइलेंट करवा दें. यह भी अनुरोध कर लें कि लैंडलाइन फोन हटा दें अथवा उस दौरान स्टाफ काल ट्रांसफर न करे.

अगर ए सी चल रहा है तो बंद करवा दें और यदि ऐसा संभव नही तो कम से कम ए सी से दूर बैठ कर रिकार्ड करें.

यदि प्रेस कांफ्रेंस है तो कोशिश करें कि थोड़ा पहले पहुँच जाएँ जिससे आपका माइक्रोफोन मुख्य वक्ता के करीब रखा जा सके. यदि ऐसा संभव न हो तो अपना माइक या रिकार्डर पब्लिक एड्रेस सिस्टम के इतने पास रखें कि आवाज फटे नही.

रिकार्डिंग के साथ-साथ नोट्स लेते रहें और समय भी अंकित करते चलें. साथ- साथ मुख्य इस्तेमाल करने लायक बात या आवाज का ट्रैक मार्क करते रहने से बाद में ढूँढने में आसानी होती है.

जब भी फील्ड में रिकार्डिंग करें उस जगह के वातावरण की सामान्य आवाज एक दो मिनट रिकार्ड कर लें . इसे हम वाइल्ड ट्रैक कहते हैं और यह पॅकेज मिक्सिंग के समय काम आती है.

अगर मौके पर कोई जोर की आवाज , फायरिंग , धमाका , किसी के रोने , चिल्लाने की आवाज , गाने, नारे , चिड़ियों कि चहक , बादलों की गरजने , झरना बहने या नदी के बहने , हैंड पम्प चलाने, मोटर गाडी अथवा ट्रेन आदि की आवाज मिलती है तो उसे भी जरुर रिकार्ड करते चलें.

यही आवाजें हमें अपने श्रोता के दिलो दिमाग को घटनास्थल तक खींच लेकर जाने में मदद करती हैं.

अच्छा होता है यदि रिपोर्टर मौके पर जो कुछ देख रहा होता है उसे वहीं रिकार्ड कर ले , जिसे हम स्टैंड अप कहते हैं. यह रिपोर्टर के अनुभव और कुशलता पर निर्भर है कि वह अपने स्टैंड अप के जरिये खींचे गए शब्द चित्र से श्रोता को हुबहू वैसे ही दृश्य की कल्पना में मदद कर सके.

यह रेडियो की विशेषता है कि वह श्रोता की कल्पनाशीलता को जगाता और सक्रिय करता है.

रामदत्त त्रिपाठी वरिष्ठ पत्रकार हैंप्रिंट और रेडियो माध्यम में लम्बा अनुभव हैबीबीसी रेडियो के उत्तर प्रदेश के ब्यूरोचीफ  रहे हैं .

 

Published here–  http://www.newswriters.in/2015/08/14/the-magic-of-radio/