अभी दो दिन पहले कानपुर गया था, आईआईटी प्रवेश परीक्षा में सफल एक ग़रीब मोची के बेटे से साक्षात्कार करने. लेकिन वहाँ मुझे एक और सच्चाई से साक्षात्कार करना पड़ा.
अपना काम खत्म करके चलने लगा तो एक सज्जन सकुचाते हुए आए अपनी समस्या बताने.
वो कोई डिप्लोमा होल्डर डॉक्टर हैं और उसी ग़रीब बस्ती में प्रैक्टिस करते हैं. मोहल्ले के लोग उनकी बड़ा आदर करते हैं.
उनकी समस्या ये है कि किसी लोकल चैनल के एक पत्रकार आए. उनकी क्लीनिक की तस्वीरें उतारीं, फिर डराया कि वो झोलाछाप डाक्टर हैं और अगर उनसे लेन देन करके मामले में कुछ समझौता नहीं कर लेते तो वह अफसरों से कहकर उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करा देंगे.
पत्रकारों के इस तरह के ब्लैकमेलिंग के किस्से काफ़ी दिनों से सुनाई दे रहे हैं. लेकिन दूसरों के मुंह से. पहली बार किसी भुक्तभोगी के मुंह से यह बात सीधे सुनने को मिली.

रविवार को हिंदी पत्रकारिता दिवस है और इस मौक़े पर यही किस्सा मेरे दिमाग में गूंज रहा है. लोग पत्रकार क्यों बनते हैं. जन सेवा के लिए या फिर जैसे- तैसे पैसा कमाने के लिए.
यह बात केवल लोकल चैनल के पत्रकारों पर लागू नहीं होती. कई बड़े बड़े चैनलों और अख़बारों के पत्रकारों, संपादकों और मालिकों के बारे में भी यही बातें सुनने को मिलती हैं.
कई अखबार और चैनल रिपोर्टर बनाने के लिए अग्रिम पैसा लेते हैं.
अनेक अपने संवाददाताओं से नियमित रूप से विज्ञापन एजेंट का काम करवाते हैं, जो बिजनेस बढ़ाने के लिए ख़बरों के माध्यम से दबाव बनाते हैं. फिर कई चैनल और अख़बार बाकायदा पेड न्यूज़ छापते या दिखाते हैं.
प्रेस काउन्सिल है मगर वह भी कुछ कर नही सकती.
हिंदी पत्रकारिता दिवस पर जब हम लोग गोष्ठियों में गणेश शंकर विद्यार्थी और पराडकर जी का गुणगान करेंगे, शायद हमें सामूहिक रूप से इस समस्या पर भी आत्मचिंतन करना चाहिए.
माना कि पत्रकारिता अब मिशन नहीं, यह एक प्रोफेशन और बिजनेस है. मगर क्या हर प्रोफेशन और बिजनेस का कोई एथिक्स नही होता?
Published here – http://www.bbc.co.uk/blogs/hindi/2010/05/post-97.html
Ram Dutt Tripathi Journalist & Legal Consultant