अब से 21 साल पहले जब अयोध्या में राम जन्मभूमि बनाम बाबरी मस्जिद का मुक़दमा हाईकोर्ट ने फ़ैजाबाद की ज़िला अदालत ने अपने पास मंगवा लिया था, उस समय तीन जजों – जस्टिस केसी अग्रवाल, जस्टिस यूसी श्रीवास्तव और जस्टिस सैयद हैदर अबास राजा ने सर्वसम्मति से यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया था.
उस आदेश के अंत में उन्होंने यह टिप्पणी की थी: ‘इसमें संदेह है कि मुक़दमे में शामिल कुछ सवालों को न्यायिक प्रक्रिया से हल किया जा सकता है.’ हाईकोर्ट की पूर्ण पीठ ने यह टिप्पणी सात नवंबर 1989 को विवादित ज़मीन पर राम मंदिर के शिलान्यास से ठीक पहले की थी.
फिर 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने भी सर्वसम्मति से केंद्र को इस मुद्दे पर राय देने से इनकार कर दिया था कि क्या वहाँ पहले स्थित कोई हिंदू मंदिर तोड़कर मस्जिद बनायी गई थी ?
सरयू तट से शुरू हुआ विवाद गंगा, गोमती और यमुना की दहलीज़ पर जाकर भी अनिर्णीत रहा. मगर अभी कुछ रोज़ पहले इस आशंका से हाईकोर्ट का फ़ैसला टलवाने की कोशिश हुई. लेकिन अदालत ने इस कोशिश को ठुकरा दिया.
उसी लखनऊ हाईकोर्ट की पूर्ण पीठ के जजों ने 21 साल बाद चारों मुकदमों के हर बिंदु पर पूरे विशवास के साथ बेहिचक अपना-अपना फै़सला दिया. फ़ैसले के अनेक बिंदुओं पर सहमत या असहमत हुआ जा सकता है, उन्हें सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है. सुप्रीम कोर्ट को इस फ़ैसले को उलटने का भी अधिकार है.
क़ानून के तहत भारतीय जनता की चुनी हुई संसद भी हस्तक्षेप कर सकती है.
लेकिन हाईकोर्ट ने फै़सला देकर समूची न्यायपालिका को इस आरोप से बरी कर दिया कि वह इस जटिल मुक़दमे पर फ़ैसला देने में ढुलमुल रवैया अपना रही है.
हाईकोर्ट अपना स्पष्ट फ़ैसला इसलिए दे सका क्योंकि इस समय 1989, 1990, 1992, 1993 जैसे तनावपूर्ण दंगे फ़साद और धार्मिक भावनाएं भडकाने वालों को जनता ने हाशिए पर डाल दिया है.
आज पूरे देश में लगभग आम सहमति है कि अगर विवाद आपसी सहमति से नहीं सुलझ सकता तो अदालत ही फै़सला करे.
भारतीय नागरिक समाज का यह विश्वास ही अदालत की शक्ति है. कितना समझदार हो गया है भारत 21 साल में! अनुभव से हर कोई सबक लेता है.
Published here- http://www.bbc.co.uk/blogs/hindi/2010/10/-21.html