“इसमें संदेह है कि मुक़दमें में शामिल कुछ मुद्दे न्यायिक प्रक्रिया से हल हो सकते हैं.”
इलाहाबाद हाईकोर्ट के तीन जजों की खंडपीठ ने करीब तीस साल पहले 07 नवंबर, 1989 को अपने एक आदेश के अंत में यह संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित टिप्पणी की थी .
हाईकोर्ट ने यह बात विवादित राम जन्म भूमि बाबरी मस्जिद परिसर में नये मंदिर के शिलान्यास से पूर्व कही थी.
उस समय देश में लोक सभा चुनाव होने वाले थे. विश्व हिन्दू परिषद ने राम मंदिर के पक्ष में जबर्दस्त आंदोलन चला रखा था. फैजाबाद कोर्ट ने विवादित मस्जिद का ताला खोलकर उसके अंदर रखी मूर्तियों की निर्बाध पूजा अर्चना की सुविधा पहले ही दे दी थी.
टेलीविजन पर इसके प्रसारण से यह राष्ट्रीय मुद्दा बन गया. हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा था कि विवादित भूखंडों पर मंदिर का शिलान्यास नहीं हो सकता.
उधर, राजीव गांधी पर चुनाव से पहले शिलान्यास का दबाव था. एक तरह से संत देवरहा बाबा ने इसके लिए राजीव गॉंधी को निर्देश दिया था.
केन्द्रीय गृहमंत्री बूटा सिंह लखनऊ आये. मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी विवादित परिसर में शिलान्यास के पक्ष में नहीं थे.
लेकिन देर रात तक विश्व हिन्दू परिषद नेताओं से बातचीत में इस शर्त पर शिलान्यास का रास्ता निकाला गया कि परिषद हाईकोर्ट का आदेश मानेगी.
पर शिलान्यास के बाद परिषद, बीजेपी और संघ नेताओं ने यह कहना शुरू कर दिया कि यह आस्था का विषय है और कोर्ट उसका फ़ैसला नहीं कर सकता.
जब अधिग्रहण पर अध्यादेश वापस लिया गया
वीएचपी का ज़ोर था कि सरकार विवादित भूमि का अधिग्रहण करके मंदिर बनाने के लिए उन्हें दे दे.
इसके बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह आये तो उन्होंने भी लाल कृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के दबाव में बातचीत से मामला सुलझाने की कोशिश की. लेकिन वार्ता आगे नहीं बढ़ी.
उन्होंने विवादित स्थल का अधिग्रहण करने का अध्यादेश जारी कर दिया पर मुस्लिम पक्ष की आपत्ति पर अध्यादेश वापस ले लिया.
इसके बाद दिसम्बर 1990 और जनवरी 1991 में प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने बड़ी गंभीरता से बातचीत शुरू करायी. उन्होंने इस प्रयास में अपने मंत्री सुबोध कांत सहाय के साथ तीन मुख्यमंत्रियों- मुलायम सिंह यादव, भैरों सिंह शेखावत और शरद पवार को शामिल किया.
दोनों पक्ष मिले. एक-दूसरे के प्रमाणों का आदान-प्रदान हुआ. मुस्लिम पक्ष के प्रतिनिधि इतिहासकारों ने अयोध्या में मौक़ा मुआयना करके दोबारा बातचीत में आने को कहा. उसके बाद 25 जनवरी 1991 को वार्ता टूट गई.
चंद्रशेखर के मित्र तांत्रिक चंद्रास्वामी ने उछल कूद की. लेकिन कोई ठोस नतीजा नहीं निकला.
इस बीच कांग्रेस ने चंद्रशेखर सरकार से समर्थन वापस ले लिया और सरकार गिर गयी. बातचीत का सिलसिला ख़त्म हो गया.
दोबारा कोशिश
इसके बाद अक्टूबर, 1992 में प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने बातचीत शुरू करायी, लेकिन विश्व हिंदू परिषद ने 06 दिसम्बर, 1992 को एकतरफ़ा कारसेवा का एलान कर दिया. विरोध जताने के लिए बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति ने खुद को वार्ता से अलग कर लिया.
विश्व हिंदू परिषद के कारसेवकों ने मामला उच्च न्यायालय में विचाराधीन रहते हुए ही सुप्रीम कोर्ट के प्रेक्षक की उपस्थिति में विवादित मस्जिद ढहा दी .
तमाम बातों में एक बिंदु यह उभर कर आता था कि अगर यह साबित हो जाए कि पुराना मंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनी थी तो मुस्लिम पक्ष दावा वापस ले लेगा. हालांकि एक तर्क यह भी था कि मस्जिद खुदा की सम्पत्ति है इसलिए कोई बंदा उसको नहीं दे सकता.
हिंदू पक्ष का ज़ोर है कि रामजी वहीं पैदा हुए थे, यह आस्था का विषय है, जिसके साथ समझौता नहीं हो सकता. हिंदू पक्ष का तर्क है कि मुस्लिम समुदाय कहीं और मस्जिद बना ले. अयोध्या में न तो मंदिरों की कमी है, न मस्जिदों की, दोनो पक्षों की ज़िद लगभग 1500 वर्गमीटर की उस जगह को पाने की है, जहां मस्जिद खड़ी थी और 22-23 दिसंबर 1949 को प्रशासन के सहयोग से मूर्तियां रखी गयी थीं.
नरसिम्हा राव सरकार ने विवाद सुलझाने के लिए राष्ट्रपति के ज़रिये सुप्रीम कोर्ट की राय मांगी कि क्या कोई पुराना मंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनायी गयी थी?
साथ ही आसपास की लगभग सत्तर एकड़ ज़मीन अधिग्रहीत कर ली और हाईकोर्ट में चल रहे चारों मुक़दमे समाप्त कर दिए.
मक़सद था अगर एक पक्ष को विवादित स्थान मिलता है तो दूसरे पक्ष को भी वहीं पास में जगह दे दी जाए, ताकि कोई पक्ष हारा हुआ महसूस न करे.
लेकिन साल 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के प्रश्न का जवाब देने से मना कर दिया और मुक़दमे जीवित करके वापस हाईकोर्ट भेज दिए.
पुरातात्विक खुदाई
इस बीच खुदाई के बाद हाईकोर्ट का 30 सितम्बर, 2010 को फ़ैसला आया.
हाईकोर्ट ने विवादित जगह को दीर्घकालीन परम्परा के आधार पर राम जन्म भूमि माना, लेकिन विवादित मस्जिद की ज़मीन को मामूली सम्पत्ति विवाद की तरह लम्बे क़ब्ज़े के आधार पर निर्मोही अखाड़ा, रामलला विराजमान और सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड में बाँट दिया.
तीनों पक्ष असंतुष्ट हुए और सुप्रीम कोर्ट में अपील दाख़िल की.
मगर इन नौ वर्षों में अभी तक हिंदी, उर्दू, फ़ारसी और संस्कृत के उन दस्तावेज़ों का अनुवाद नहीं हो पाया जो पक्षकारों ने हाईकोर्ट में जमा कराए थे.
भाजपा की राजनीति!
भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राम मंदिर निर्माण के ही मुद्दे पर सत्ता में आए थे, लेकिन उन्होंने अपनी ओर से दोनों पक्षों के बीच बातचीत से मामला सुलझाने की कोशिश भी नहीं की.
प्रधानमंत्री मोदी ने संघ प्रमुख मोहन भागवत की यह मांग भी नहीं मानी कि सरकार क़ानून बनाकर मंदिर निर्माण का रास्ता प्रशस्त करे.
राजनीतिक प्रेक्षकों को यह भी शक है कि बीजेपी इस मुद्दे को सुलझाने के बजाय ज़िंदा रखना चाहती है ताकि हर चुनाव में हिंदुओं को गोलबंद करने का मुद्दा बना रहे.
हिंदू धर्मगुरु श्री श्री रविशंकर ने निजी स्तर पर मामला सुलझाने की कोशिश की थी, लेकिन उनका ज़ोर इस पर रहा कि वहाँ मंदिर ही बनाना चाहिए यानी मुस्लिम पक्ष दावा वापस ले. इसलिए यह प्रयास भी कारगर साबित नहीं हुआ.
प्रधानमंत्री ने कहा कि पहले सुप्रीम कोर्ट फ़ैसला सुनाए फिर सरकार कुछ करेगी.
यानी अगर फ़ैसला मंदिर के पक्ष में नहीं आया तो दूसरे फ़ैसलों की तरह इसको भी क़ानून से पलट दिया जाएगा.
पिछली तारीख़ में सुप्रीम कोर्ट ने दोनो पक्षों के अनुवाद चेक करने के लिए आठ हफ़्ते का समय दिया ताकि औपचारिक सुनवाई शुरू हो सके.
नतीजा निकलेगा?
सिविल प्रोसीजर कोड यानि दीवानी प्रक्रिया संहिता की धारा 89 में कोर्ट को एक कोशिश करनी होती है कि मामला अदालत से बाहर सुलझाया जाए. हाईकोर्ट ने भी यह औपचारिकता निभायी थी.
सिद्धांत यह है कि अगर ज़रा भी गुंजाइश हो तो संबंधित पक्ष आपसी सहमति से विवाद सुलझा लें.
इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने तीन सदस्यों की एक समिति बना दी है, जिसमें श्री श्री रविशंकर भी हैं.
समझौता वार्ता तभी सफल हो सकती है जब दोनों पक्ष खुले दिमाग से और झुककर मामला सुलझाना चाहें.
हिंदू पक्ष तो सुप्रीम कोर्ट के समझौता प्रस्ताव से ही सहमत नहीं है और समिति में श्री श्री रविशंकर भी एक पक्ष के समर्थक हैं.
ऐसी परिस्थिति में लगता नही कि वार्ता से नतीजा निकलेगा. हाँ, सुप्रीम कोर्ट को यह संतोष हो जाएगा कि क़ानून के मुताबिक़ कोशिश की गयी.
Published here – https://www.bbc.com/hindi/india-47495452