राहुल गांधी की राजनीति

राहुल गांधी को बुधवार को बनारस के कांग्रेस सम्मलेन में दिन भर मंच पर बैठे, आम कांग्रेसजनों से मिलते-जुलते और फिर भारत की सबसे शक्तिशाली समझी जाने वाली महिला नेताओं में से एक मायावती के ख़िलाफ़ खुली जंग का ऐलान करते देख मुझे उनसे पहली मुलाक़ात याद आ रही है.

कुछ साल पहले की बात है , मेरे ख्याल से वर्ष 2004 के लोक सभा चुनाव से पहले की. राहुल ने राजनीति में पहला कदम रखा था.

वह जगदीशपुर से अमेठी जनसंपर्क के लिए निकले थे. रास्ते में सड़क के किनार एक जगह चाय पी. कई जगह उनका स्वागत हुआ. जीप के बगल पैदल चलते हुए मैंने कई बार उनसे इंटरव्यू की कोशिश की. मुंशीगंज तक वह टालते रहे. एक बार सिर्फ यह पूछा क्या सवाल पूछोगे? घबराहट साफ़ झलक रही थी. कहा मुंशीगंज गेस्ट हॉउस आइये वहाँ देखेंगे. खैर वह इंटरव्यू नही मिला.

पिछले विधान सभा चुनाव से पहले मुरादाबाद के एक होटल में दिल्ली से आए संपादकों के साथ मेरी भी राहुल गांधी से मुलाक़ात और चर्चा हुई.

बातचीत से साफ़ लगा कि अब राहुल उत्तर प्रदेश की राजनीति को समझने लगे हैं. पिछले पांच सालों में राहुल ने अपनी छवि ग़रीबों के हमदर्द की बनाई है, चाहे उनकी झोपड़ी में रात बिताकर, हैण्ड पम्प में नहाकर या फिर संसद में कलावती का दर्द बयान कर.

लेकिन पिछले कुछ ही हफ़्तों में राहुल गांधी ने अपनी छवि और हुलिया बदला है.

मायावती भले उन्हें कांग्रेस का युवराज और पार्टी का भावी प्रधानमंत्री कहें, मगर राहुल ने अपनी छवि एक ऐसे जुझारू युवक की पेश की है, जो हालत को बदलने के लिए पार्टी के आम कार्यकर्ता के साथ कामरेडशिप दिखाकर सड़क पर संघर्ष करना चाहता है.

हालांकि उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी नेता 22 साल से सरकार से बाहर रहने के बावजूद अपने को सत्तारूढ़ दल के नेता की तरह पेश करते हैं.

राहुल का भाषण शायद मायावती के लिए कम और कांग्रेसियों को झकझोरने के लिए ज्यादा था. मंच से उतर कर वह आम कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच गए. खाने पीने के बारे में पूछा. हाल चाल लिया.

राहुल ने शुरु में उद्घाटन भाषण देने बजाय, पहले सबकी बातें सुनीं. फिर अंत में बोले तो एकदम एंग्री मैन की तरह, सब कुछ बदल डालूँगा की तर्ज़ पर.

इससे पहले वह भट्टा परसौल गए और धूप में जमीन पर ही धरने पर बैठ गए. किसानों को प्रधानमंत्री से मिलाने ले गए और दूसरे नेताओं की तरह मीडिया को बुलाकर ज़बरदस्त बयान दिया, जिसकी सफ़ाई कांग्रेस को अभी तक देनी पड़ रही है.

वर्ष 1980 में उनके चचा संजय गांधी ने नारायणपुर कांड को लेकर भी तत्कालीन मुख्यमंत्री बनारसी दास को ऐसे ही घेरा था.

पिछले चार सालों में राहुल गांधी और उनकी माँ सोनिया गांधी ने अपने को केवल अमेठी – राय बरेली तक सीमित रखा. वहाँ भी न तो वे जनता की रोज़मर्रा की समस्याओं से जुड़ पाए और न ही मतदाताओं से सीधा संवाद कायम कर पाए.

अब लगता है कि माँ और बेटे दोनों को यूपी फ़तह करने की जल्दी है. फिर इसके लिए चाहे लखनऊ में किसी दफ़्तर जाकर आरटीआई की दरखास्त डालनी पड़े या भट्टा में दिन भर धूप में बैठना पड़े.

दरसल 2012 के यूपी चुनाव में उत्तर प्रदेश की अगली सरकार के भविष्य के साथ ही साथ 2014 के लोकसभा चुनाव की बिसात भी बिछ जाएगी.

अगर यूपी विधान सभा चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा नहीं हुआ तो फिर राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने के सपने का क्या होगा?

लगता है कि राहुल गांधी की झिझक अब खत्म हो गई है. उन्हें एहसास हो गया है कि फ़िलहाल उत्तर प्रदेश में कांग्रेस चौथे नंबर की विपक्षी पार्टी है और अगर वह स्वयं मोर्चे पर आगे अगुआई नही करेंगे तो मायावती और मुलायम जैसे अनुभवी खिलाड़ियों और बीजेपी जैसी व्यापक संगठन वाली पार्टी से मुक़ाबले में कांग्रेस आगे नही बढ़ पाएगी.

 

http://www.bbc.co.uk/blogs/hindi/2011/05/post-166.html