गोरखपुर लोकसभा उप चुनाव अब से क़रीब पचास साल पहले मानीराम विधान सभा उप चुनाव की याद दिलाता है, जब तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिभुवन नारायण सिंह इसी जिले में चुनाव हार गए थे.
इस लोक सभा उप चुनाव में आदित्य नाथ योगी भले औपचारिक रूप से उम्मीदवार नहीं थे. लेकिन गोरखपुर उनका गृह जनपद है. वह पाँच बार स्वयं वहाँ से सांसद थे, उसके पहले उनके गुरु थे. योगी जी ने उप चुनाव के लिए निर्वाचन क्षेत्र के हर कोने में दो दर्जन से अधिक सभाएँ की और भाजपा प्रत्याशी को जिताने की हर संभव कोशिश की. लग रहा था जैसे वही उम्मीदवार हैं.
इसलिए यह परिणाम भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से अधिक योगी जी के लिए झटका है, जिन्हें प्रेक्षक मोदी जी के विकल्प या उत्तराधिकारी के रूप में भी देखने लगे हैं.
सत्ता में रहते हुए हार टाल नहीं सके
योगी जी की तरह उनके उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य भी फूलपुर से लाखों मतों के अंतर से पिछला लोक सभा आम चुनाव जीते थे. पर तमाम कोशिशों के बावजूद सत्ता में रहते हुए वह उप चुनाव में हार टाल नहीं सके.
श्री मौर्य केवल उप मुख्यमंत्री ही नहीं हैं बल्कि योगी जी के प्रतिद्वन्द्वी भी हैं.
दरअसल दोनों जगह उप चुनाव में मतदान कम होने के बाद ही परिणाम का अंदाज लग गया था.
जनता ने योगी और मौर्य दोनों को आइना दिखा दिया.
भाजपा के कार्यकर्ताओं और समर्थकों में उत्साह की कमी साफ़ झलक रही थी.
एक तरफ़ भाजपा समर्थकों में उदासीनता झलक रही थी, दूसरी तरफ़ भाजपा विरोधी मतदाताओं में अचानक से उत्साह दिखने लगा था.
उत्साह की वजह सिर्फ़ यह थी कि पहले उप चुनावों से दूर रहने वाली बहुजन समाज पार्टी ने राज्य सभा चुनाव में समर्थन के बदले में गोरखपुर और फूलपुर में समाजवादी पार्टी को समर्थन की घोषणा कर दी थी. यानी यह 1993 की तरह औपचारिक गठबंधन भी नहीं था.
हिंदुत्ववादी ताक़तों का वर्चस्व
तब और अब की परिस्थिति में एक समानता है वह है भारतीय जनता पार्टी में हिन्दुत्ववादी ताक़तों का वर्चस्व.
6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद टूटने के बाद कई लोग आशंका जताने लगे थे कि क्या देश विभाजन की ओर बढ़ रहा है? कई मुल्कों में लोग भारत में अल्पसंख्यकों के अस्तित्व और सुरक्षा को लेकर चिंता प्रकट कर रहे थे.
लेकिन हिन्दुत्ववादी ताक़तों के उभार से हिन्दुओं के ही उपेक्षित वर्गों में, जिन्हें आप चाहे दलित और पिछड़े कहें या खेतिहर मज़दूर, दस्तकार ओर छोटे किसान कहें, एक चिंता भी उभरी कि यह उभार कहीं सामंतवादी और पूँजीवादी ताकतों को तो मज़बूत नहीं करेगा. याद दिला दें कि हिन्दू-मुस्लिम झगड़ों के उसी दौर में दबे पांव आर्थिक उदारीकरण भी आया.
निचले स्तर से सामाजिक दबाव के परिणामस्वरूप 1993 उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के लिए औपचारिक गठबंधन हुआ. नारा लगा, ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा हो गये जय श्रीराम.
आडवाणी और कल्याण सिंह की जोड़ी की तमाम मेहनत के बावजूद सत्ता को डोर भारतीय जनता पार्टी के हाथों से फिसल गयी.
हिन्दू मुस्लिम वैमनस्य बढ़ाने में सक्रियता
काँग्रेस और भाजपा दोनों के रणनीतिकारों को लगा कि गठबंधन का चुना उनके दूरगामी हित में नहीं है. इसलिए तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव और भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी में इस गठबंधन को तोड़ने का समझौता हुआ. भाजपा ने मायावती को मुख्यमंत्री पद के लिए समर्थन दिया और गवर्नर मोतीलाल वोरा ने प्रधानमंत्री के इशारे पर, मुलायम सिंह को बर्खास्त कर मायावती को मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया.
गठबंधन का बिखरना भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए लाभप्रद रहा.
त्रिपुरा और अन्य राज्यों में जहां वह सत्ता में नहीं थी भाजपा के प्रति आकर्षण देखा गया. लेकिन उत्तर भारत में, जहां भाजपा केंद्र और राज्य दोनों में सत्ता में है, अब भाजपा के प्रति आकर्षण घट रहा है. वजह साफ़ भाजपा और संघ परिवार अपने लुभावने चुनावी वादे पूरे करने के बजाय हिन्दू मुस्लिम वैमनस्य बढ़ाने की दिशा में ज़्यादा सक्रिय है.
बेरोज़गार युवा, किसान, मज़दूर और व्यापारी निराश परेशान हैं.
कितना अलग है राहुल और शाह के काम का तरीका?
बड़े आंदोलन की अगुआई की पहल
आम धारणा बन रही है कि सरकार कुछ औद्योगिक घरानों को प्रश्रय दे रही है. मोदी के स्वयं पिछड़े वर्ग से होने के बावजूद सामाजिक दृष्टि से कमज़ोर और पिछड़े लोग सरकार से लाभान्वित महसूस नहीं कर रहे हैं.
यह बात गुजरात महाराष्ट्र एवं अन्यत्र होने वाले जनान्दोलनों से समझी जा सकती है.
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव और कीर्ति चिदंबरम के जेल जाने से वे अनेक विपक्षी नेता डरे हैं जिन्होंने सत्ता में रहते हुए अकूत सम्पत्ति जमा की थी.
आशंका है कि सीबीआई जल्दी ही कुछ और विपक्षी नेताओं के केस खोल सकती है.
इसलिए ये नेता सरकार के ख़िलाफ़ किसी बड़े आंदोलन की अगुआई अथवा औपचारिक गठबंधन घोषित नहीं कर रहे हैं.
लेकिन सोनिया गांधी ने उसकी पहल कर दी है.
…तो लगेगा मोदी की वापसी पर प्रश्नचिह्न
नतीजों से गदगद समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने समर्थन के लिए मायावती को धन्यवाद दे दिया है.
पर यह नहीं लगता कि बीजेपी शीर्ष नेतृत्व ने परिणाम से सही संदेश ग्रहण किया है. मुख्यमंत्री योगी ने हार के लिए चुनाव के बीच में सपा और बसपा के अचानक गठबंधन को ज़िम्मेदार बताया है.
मगर योगी जी यह नहीं समझना चाहते कि भाजपा का अपना कार्यकर्ता और समर्थक सरकार से निराश क्यों है. क्योंकि नीतियों और निर्णयों में ज़मीनी कार्यकर्ताओं की सुनी नहीं जा रही.
आर्थिक मुद्दे, किसानों, युवकों और व्यापारियों के मुद्दे छोड़ दें तो भी गंगा की सफ़ाई या अयोध्या विवाद सुलझाने जैसे मुद्दों पर भी ख़ास प्रगति नहीं हुई.
पिछले लोक सभा चुनाव में भाजपा की जीत भारी हुई थी लेकिन मतों का प्रतिशत एक तिहाई से कम था. यानी विपक्षी दलों में बिखराव से तमाम मतदाताओं को भाजपा या मनमोहन सिंह का कोई और विकल्प नहीं दिखा.
संदेश साफ़ है अगर भाजपा विरोधी दल, काँग्रेस के साथ या काँग्रेस के बग़ैर कोई विश्वसनीय विकल्प बना लेते हैं तो नरेन्द्र मोदी की सत्ता में वापसी की तमाम भविष्यवाणियों पर प्रश्नचिह्न लग जाएगा.
ये चुनाव नतीजे कहीं न कहीं कांग्रेस को भी संदेश देते हैं कि वो जमीनी हक़ीकत को समझें और जमीनी कार्यकर्ताओं की बातों को सुनें अन्यथा यह ज़रूरी नहीं कि तीसरे विकल्प के रूप में कांग्रेस का ही नाम आए, कोई और भी विकल्प सामने आ सकता है.
source: https://www.bbc.com/hindi/india-43405694